मयस्सर तक नहीँ परदेश में जब आबो दाना भी ।
बहुत मुमकिन परिंदों का है घर पर लौट आना भी ।।
उसूलों को जो बाजारों में अक्सर. बेच आते हैं ।
उन्हीं के हाथ लगता है .मुक़द्दर का खज़ाना भी ।।
सियासत दां की यारी से बचा ले ऐ खुदा मुझको ।
अजब है दुश्मनी उनकी अजब है दोस्ताना भी ।।
हमारी मुफलिसी की हर कहानी याद है उसको ।
अभी तक है शज़र वो नीम का घर में पुराना भी ।।
हर इक रिश्ते की है बुनियाद में दौलत की जब ईटें ।
चलो बस हो चुका फिर तो मुहब्बत का निभाना भी ।।
बहुत लाचार है बस्ती बड़ा ख़ामोश है मंजर ।
सँभल के चल यहां तो वार होगा क़ातिलाना भी ।।
गली से मत निकलिए इस तरह बन ठन के ऐ साहिब ।
न बन जाऊं कहीं मैं हुस्न का इक दिन निशाना भी।।
तरक्क़ी कर के देखो पांव खींचेगा जमाना ये ।
यहां तो जुल्म है यारो खुशी से सर उठाना. भी ।।
अमीरों से गरीबी की यहाँ चर्चा न कीजै अब ।
नई फ़ितरत है उनकी बेबसी पर ज़ुल्म ढाना भी ।।
मुनासिब दूरियां रखना जरा तुम उन हसीनों से ।
दिलों पर ज़ख़्म कर जाता है जिनका मुस्कुराना भी।।
तुम्हारी शरबती आंखों से छलके जाम जब साकी ।
हमें तो याद है अब तक बहुत पीना पिलाना भी ।।
मौलिक अप्रकाशित
डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
बहुत मुमकिन परिंदों का है घर पर लौट आना भी ।।
उसूलों को जो बाजारों में अक्सर. बेच आते हैं ।
उन्हीं के हाथ लगता है .मुक़द्दर का खज़ाना भी ।।
सियासत दां की यारी से बचा ले ऐ खुदा मुझको ।
अजब है दुश्मनी उनकी अजब है दोस्ताना भी ।।
हमारी मुफलिसी की हर कहानी याद है उसको ।
अभी तक है शज़र वो नीम का घर में पुराना भी ।।
हर इक रिश्ते की है बुनियाद में दौलत की जब ईटें ।
चलो बस हो चुका फिर तो मुहब्बत का निभाना भी ।।
बहुत लाचार है बस्ती बड़ा ख़ामोश है मंजर ।
सँभल के चल यहां तो वार होगा क़ातिलाना भी ।।
गली से मत निकलिए इस तरह बन ठन के ऐ साहिब ।
न बन जाऊं कहीं मैं हुस्न का इक दिन निशाना भी।।
तरक्क़ी कर के देखो पांव खींचेगा जमाना ये ।
यहां तो जुल्म है यारो खुशी से सर उठाना. भी ।।
अमीरों से गरीबी की यहाँ चर्चा न कीजै अब ।
नई फ़ितरत है उनकी बेबसी पर ज़ुल्म ढाना भी ।।
मुनासिब दूरियां रखना जरा तुम उन हसीनों से ।
दिलों पर ज़ख़्म कर जाता है जिनका मुस्कुराना भी।।
तुम्हारी शरबती आंखों से छलके जाम जब साकी ।
हमें तो याद है अब तक बहुत पीना पिलाना भी ।।
मौलिक अप्रकाशित
डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
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