तीखी कलम से

शुक्रवार, 7 जून 2019

दफ़अतन हो गई बेखुदी मुख़्तसर

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कीजिये मत अभी रोशनी मुख़्तसर ।।
आदमी कर न ले जिंदगी मुख़्तसर ।

इश्क़  में  आपको  ठोकरें   क्या लगीं ।
दफ़अतन हो  गयी  बेख़ुदी मुख़्तसर ।।

नौजवां  भूख  से  टूटता  सा  मिला ।
देखिए  हो  गयी आशिक़ी मुख़्तसर ।।

गलतियां  बारहा  कर वो कहने लगे ।
क्यूँ   हुई  मुल्क़ में नौकरी मुख़्तसर ।। 

कैसे कह दूं के समझेंगे जज़्बात को ।
जब वो करते नहीं बात ही मुख़्तसर ।।

सिर्फ शिक़वे गिले में सहर हो गयी ।
वस्ल की रात होती गयी मुख़्तसर ।।

जब रकीबों से उसने मुलाकात की ।
आग दिल मे कहीं तो लगी मुख़्तसर ।।

कैसे मिलता सुकूँ आखिरी वक्त में ।
आरजू  ही  नहीं  जब हुई मुख़्तसर ।।

याद आये बहुत मुझको लम्हात वो ।
आप से इक नज़र जो मिली मुख़्तसर ।।

है  करम  बादलों  का   चले  आइए ।
बाम पर हो गयी चाँदनी मुख़्तसर ।।

आज भौरों को किसने ख़बर भेज दी ।
इक कली बाग में जब खिली मुख़्तसर ।।

शब्दार्थ - मुख़्तसर - संक्षिप्त , थोड़ा , कम, अल्प,
दफ़अतन- अचानक 
बाम - छत

          -डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
          मौलिक अप्रकाशित

अब तो पर्दा उठा दिया जाए

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अब  तो   पर्दा  उठा  दिया   जाए ।
ज़ख़्म  दिल  का दिखा दिया जाए ।।

ऐ   समुंदर   तेरे    लिए   दरिया  ।
दांव पर  क्यूँ  लगा  दिया   जाए ।।

सबकी  नीयत   खराब  देखी  है ।
किसको कलमा पढा दिया जाए ।।

ईद    का   इंतज़ार   है   उसको ।
बाम  पर  चाँद  ला  दिया  जाए ।।

 ऐ   ग़ज़ल    तेरे   कद्रदानों   में ।
नाम   मेरा   लिखा   दिया  जाए ।।

ई 0वी एम 0 तो  मशीन   है  यारो।
दोष  उस  पर   मढ़ा   दिया  जाए।।

बात   बढ़  जाये  न  कहीं  ज्यादा ।
मसअला  को   दबा    दिया।  जाए ।।

रिन्द  की  तिश्नगी  भी  जायज है ।
मैकदे   को  लुटा   दिया   जाए ।।

इस कदर  हिज्र  में वो  तड़पा  है ।
जैसे   नश्तर   चुभा  दिया  जाए ।।

दिल जलाने की है अगर साजिश ।
रूख़ से चिलमन हटा दिया जाए ।।

मौत  के  बाद  रूह  की ख्वाहिश ।
पैरहन   इक   नया  दिया   जाए ।।

पैरहन - वस्त्र 

- नवीन मणि त्रिपाठी 
 मौलिक अप्रकाशित

चित्र -गूगल से

इश्क़ उसे जब खेल तमाशा लगता है

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बादल  का अंदाज जुदा  सा  लगता  है ।
सावन  सारा   सूखा   सूखा  लगता  है ।।

जाने  क्यूँ   मरते  हैं   उस  पर   दीवाने ।
इश्क़  उसे जब खेल तमाशा लगता है ।।

 काहकशाँ  से  टूटा जो  इक  तारा  तो ।
चाँद  का  चेहरा  उतरा उतरा लगता है ।।

तेरी  अना से  टूट  रहा  है  वह  रिश्ता ।
जिसकी ख़ातिर एक ज़माना लगता है ।।

आग से मत खेला  करिए चुपके  चुपके ।
घर  जलने   में  एक  शरारा   लगता  है ।।

दर्द विसाले  यार  ने  ख़त  में  है  लिक्खा ।
उस पर सुबहो शाम का पहरा लगता है ।।

छुप छुप कर सबने देखा रोते जिसको ।।
उसके दिल का  ज़ख़्म पुराना लगता है ।

शम्अ जलेगा परवाना इक दिन तुुुझ से ।
हुस्न  का   तेरे  ये  दीवाना   लगता  है ।।

मांग रहा है वफ़ा के  बदले  जान  कोई ।
कैसे   कह  दूं   नेक  इरादा  लगता  है।।

तुझको सारी रात  निहारा करते  हम ।
चाँद  बता  तू  कौन  हमारा  लगता है ।।

लिख  डाला  है  तुमने जो कुछ  पन्नों  में ।
यह   तो  मेरा   एक  फ़साना  लगता   है ।।

शब्दार्थ -
काहकशाँ शुद्ध फ़ारसी शब्द उर्दू में कहकशाँ हिंदी में तारामंडल

शरारा -चिंगारी

      डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
       मौलिक अप्रकाशित

इक बार कहीं दिल तो लगाना ही चाहिए



****ग़ज़ल **

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उनको    चिराग़े  इश्क़   जलाना  ही  चाहिए ।
अब  तो  मेरे  दयार  में  आना  ही  चाहिए ।।

 हिन्दू  हो या  मुसलमाँ  वो इंसान ही  तो  है ।
अब  फ़ासला दिलों का मिटाना ही चाहिए ।।

समझोगे कैसे इश्क़ की बारीकियों  को  यार ।
इक बार  कहीं  दिल तो लगाना ही चाहिए ।।

प्यासी जमीं को  देख के  इतरा न इस तरह ।
बादल तुझे बरस के तो  जाना  ही चाहिए ।।

माना   कि   ज़िंदगी  में   मयस्सर नहीं  खुशी ।
फिर  भी  नई  उमीद  जगाना  ही  चाहिए ।।

गर खिल चुका है गुल तो मुक़द्दर तू आजमा ।
ख़ुश्बू से तितलियों को रिझाना ही चाहिए ।।

कीचड़  में  डालता  है तू  पत्थर जो रौब  से ।
छींटा  तेरे  वजूद  तक  आना  ही चाहिए ।।

बख़्शा  उसे  है  हुस्न  ख़ुदा  ने जो बेहिसाब ।
उसको  फ़ज़ा में  जश्न  मनाना  ही चाहिए ।।

गर चाहते  हो  जिंदगी  का लुत्फ़ हो जवां ।
तुमको  विसाले यार   बनाना   ही चाहिए ।।

           नवीन

कुछ तो जीने का हुनर पैदा कर

2122 1122 22 

अपने जुमलों  में असर  पैदा  कर ।।
कुछ  तो  जीने का हुनर पैदा कर ।।

दिल जलाने की अगर है ख्वाहिश ।
तू भी आंखों  में  शरर  पैदा  कर ।।

गर ज़रूरत  है तुझे  ख़िदमत  की ।
मेरी  बस्ती  में  नफ़र  पैदा  कर ।।

 जिंदगी  मांगेगी   हर  एक  मांगेगी ।
इस  तरह  तू  न  गुहर  पैदा  कर ।।

देखता  है  वो  तेरा जुल्मो  सितम।
दिल  में भगवान  का डर पैदा  कर ।

अब तो सूरज  से  है तुझको  खतरा । 
सह्न  में  कोई   शज़र  पैदा   कर ।।

तीरगी   से    है   अदावत    तेरी ।
काली   रातों  में   क़मर  पैदा  कर ।।

देख  लूं  मैं   भी  तुझे जी  भर के ।
या  ख़ुदा   मुझमें  बशर  पैदा  कर ।।

बज्मे  दिल  से  तू  चला  जायेगा ।
हिज्र  के  नाम  ज़िगर  पैदा कर ।।

स्याह  ये  रात   गुजरनी  मुश्किल ।
अपने  दम  पे  तू  सहर पैदा कर ।।

चाहतें  मेरी   समझने   के   लिए ।
ऐ  सनम   एक  नज़र  पैदा  कर ।।

कठिन शब्द के अर्थ
शरर- चिंगारी ,  सदफ- सीप,बसर -दृष्टि या विज़न, गुहर -मोती, नफ़र -ख़िदमत करने वाला , तीरगी अंधेरा ,अदावत दुश्मनी, शब रात ,  , क़मर-चाँद , सहर- सुबह, शज़र -पेड़ वृक्ष 

         डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
         मौलिक अप्रकाशित

फ़ासले बेक़रार करते हैं

2122 1212 22
फासले      बेकरार    करते    हैं ।
और   हम   इतंजार   करते    हैं ।।

इक तबस्सुम को लोग जाने क्यूँ ।
क़ातिलों   में   शुमार  करते   हैं ।।

सिर्फ   धोखा  मिला  ज़माने   से ।
जब   भी हम  ऐतबार   करते  हैं ।।

मैं तो  इज्ज़त  बचा के  चलता हूँ ।
और   वह   तार   तार  करते   हैं ।।

उनको  गफ़लत   हुई   यही  यारो ।
इश्क़   हम  से   हजार  करते  हैं ।।

हुस्न  की   बेसबब  नुमाइश  कर ।
गुल  खिंजा  को  बहार  करते  हैं।।

अब मुहब्बत की बात क्या करना ।
जब वो  खंजर पे  धार  करते  हैं ।।

हाले  दिल अब  न  पूछिये  हमसे ।
आप   तो    इश्तिहार   करते   हैं ।।

कितने  शातिर  हैं  शह्र  वाले  ये ।
पीठ   पे   रोज   वार  करते   हैं ।।

बेचते  अब   ज़मीर  दौलत   पर ।
वो   यही   कारोबार   करते   हैं ।।

कुछ  वफाओं  का  वास्ता  देकर ।
लोग दिल का  शिकार  करते  हैं  ।।

       डॉ नवीन मणि त्रिपाठी 
         मौलिक अप्रकाशित

याद फिर गुज़रा ज़माना आ गया

जब  जुबां पर वह तराना आ गया ।
याद फिर  गुजरा ज़माना आ गया ।।

शब के आने की हुई  जैसे  खबर ।
जुगनुओं को जगमगाना आ गया ।।

मैकदे को शुक्रिया कुछ तो कहो।
अब तुम्हें पीना पिलाना आ गया ।।

वस्ल की इक रात जो मांगी यहां ।
फिर तेरा लहजा पुराना आ गया ।।

छोड़ जाता मैं तेरी महफ़िल मगर ।
बीच  मे  ये  दोस्ताना  आ  गया ।।

जब  भी गुज़रे  हैं गली से  वो मेरे ।
फिर तो मौसम क़ातिलाना आ गया ।।

आरिजे गुल पर तबस्सुम देख कर ।
तितलियों को भी रिझाना आ गया ।।

उठ रहीं जब से कलम पर उँगलियाँ ।
और  चर्चा  में  फ़साना  आ  गया ।।

कुछ तेरी सुहबत का शायद है असर ।
ज़िंदगी  को   मुस्कुराना  आ   गया ।।

हुस्न जब दाखिल हुआ महफ़िल में तब।
शायरों   का  आबो  दाना  आ गया ।

बदला बदला आपका है ये मिज़ाज ।
हाथ में  क्या फिर  खज़ाना आ गया ।।

गुज़री है मेरे दिल पर क्या अब हिज्र का आलम पूछ रहे

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गुज़री है मेरे दिल पर क्या क्या अब हिज्र का आलम पूछ रहे ।।
मालूम तुम्हें जब गम है मेरा क्यूँ आंखों का पुरनम पूछ रहे ।।1

इक आग लगी है जब दिल में चहरे पे अजब सी बेचैनी । 
इकरारे मुहब्बत क्या होगी ये बात वो पैहम पूछ रहे ।।2

कुछ फ़र्ज़ अता कर दे जानां कुछ खास सवालातों पर अब ।
होठों पे तबस्सुम साथ लिए जो वस्ल का आगम पूछ रहे ।।3

हालात मुनासिब कौन कहे जलती है जमीं जलता भी है दिल।
बादल से परिंदे रह रह कर बरसात का मौसम पूछ रहे ।।4

हम यूँ ही तरक्क़ी करते हैं महफूज़ रहेगा मुल्क यहाँ ।।
कुछ खास तो है दुनिया वाले इस देश का परचम पूछ रहे ।।5

हर वक्त तबाही का मंजर ख़ामोश रहेगा रब कब तक ।।
कुछ रहम करे उन पर भी ख़ुदा जो राज ए बरहम पूछ रहे ।।6

अब फ़िक्र गुनाहों की उनको इक रोज़ कयामत आएगी ।
शैतां भी खता से बचने को अल्लाह का ज़मज़म पूछ रहे ।।7

बेदर्द जहां पर अफसर है इंसाफ का मंजर क्या होगा ।
अब लोग सितमगर से ही तो हर घाव का मरहम पूछ रहे ।।8

इस बात पे दौलत वालों की बस्ती में है बरपा हंगामा ।
फुटपाथ पे रहने वाले क्यूँ इक शाम का मक़दम पूछ रहे ।।9

चाहत की अदाएं क्या होंगी दीदार करेगी क्या दुनिया ।।
ऐ चाँद यहाँ तुमसे अंजुम उस रात का संगम पूछ रहे ।।10

खुशियों का तलातुम देख के अब  हैरां हैं चमन के लोग यहाँ ।
नादां हैं बहुत कश्ती वाले दरिया से जो उद्गम पूछ रहे ।।11

    --डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

यहाँ तो जुल्म है यारो खुशी से सर उठाना भी

मयस्सर तक नहीँ  परदेश  में जब आबो  दाना भी ।
बहुत मुमकिन परिंदों का है घर पर लौट आना भी ।।

उसूलों  को  जो  बाजारों  में  अक्सर. बेच आते हैं । 
उन्हीं  के  हाथ लगता है .मुक़द्दर का खज़ाना भी ।।

सियासत दां की यारी से बचा ले ऐ खुदा मुझको ।
अजब है दुश्मनी उनकी अजब  है  दोस्ताना भी ।।

हमारी मुफलिसी की हर कहानी  याद है  उसको ।
अभी तक है शज़र वो नीम का घर में पुराना भी ।।

हर इक रिश्ते की है बुनियाद में दौलत की जब ईटें ।
चलो बस हो चुका फिर तो मुहब्बत का निभाना भी ।।

बहुत  लाचार  है  बस्ती  बड़ा  ख़ामोश  है  मंजर ।
सँभल के चल यहां तो वार होगा क़ातिलाना भी ।।

गली से मत निकलिए इस तरह बन ठन के ऐ साहिब ।
न बन जाऊं कहीं मैं हुस्न का इक दिन निशाना भी।। 

तरक्क़ी  कर  के  देखो  पांव  खींचेगा  जमाना ये ।
यहां  तो  जुल्म है यारो खुशी से सर  उठाना. भी ।।

अमीरों से  गरीबी  की यहाँ चर्चा  न  कीजै  अब ।
नई फ़ितरत है उनकी बेबसी पर ज़ुल्म ढाना भी ।।

 मुनासिब  दूरियां  रखना जरा  तुम उन हसीनों से ।
दिलों पर ज़ख़्म कर जाता है जिनका मुस्कुराना भी।।

तुम्हारी शरबती आंखों से छलके जाम जब साकी ।
हमें  तो  याद  है अब तक बहुत पीना पिलाना भी ।।

               मौलिक अप्रकाशित
              डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

मंजिल पे नज़र हो तो मेरे साथ चलो


 221 1221 1221 12

मुश्किल सी डगर हो तो मेरे साथ चलो ।।
मंजिल पे नज़र हो तो मेरे साथ चलो ।।

ये वक्त है गुरबत का मेरे यार अभी ।
तुमसे न बसर हो तो मेरे साथ चलो।।

है आग के दरिया से गुजरना भी तुम्हें ।
दिल में नहीं डर हो तो मेरे साथ चलो ।।

सच कहता हूँ तुम से के अगर कुछ भी मेरी ।
चाहत का असर हो तो मेरे साथ चलो।

आसां नहीं है राहे मुहब्बत का सफ़र ।
पत्थर का जिगर हो तो मेरे साथ चलो ।।

ये शब तो गरीबी की गुज़रती ही नहीं ।
होती न सहर हो तो मेरे साथ चलो ।।

लगता है ये लम्हात बुरे होंगे अभी  ।
तूफ़ां की खबर हो तो मेरे साथ चलो ।।

         डॉ - नवीन मणि त्रिपाठी

उसे याद क्यूँ रात भर कीजिये

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मुहब्बत की ख़ातिर ज़िगर कीजिये ।
अभी  से  न  यूँ  चश्मे  तर  कीजिये ।।

गुजारा   तभी   है  चमन   में   हुजूऱ ।
हर इक ज़ुल्म को अपने सर कीजिये ।।

करेगी    हक़ीक़त   बयां   जिंदगी ।
मेरे साथ कुछ दिन सफ़र कीजिये ।।

पहुँच  जाऊं  मैं  रूह तक आपकी ।
ज़रा  थोड़ी  आसां  डगर कीजिये ।।

वो पढ़ते हैं जब खत के हर हर्फ़ को ।
तो  मज़मून  क्यूँ  मुख़्तसर  कीजिए ।।

लगे मुन्तज़िर   गर  मेरा दिल  सनम ।
तो  नज़रे  इनायत  इधर  कीजिये ।।

ज़रूरत  बहुत  रोशनी   की    यहां ।
तबस्सुम  से शब को सहर कीजिए ।।

है  उतरा  जमीं  पर  अगर  चाँद  वो ।
तो  रुख आप  भी अब  उधर कीजिये ।।

मुक़द्दर  में  जो  शख्स है  ही  नहीं ।।
उसे  याद  क्यूँ  रात  भर  कीजिये ।।

शिक़ायत  खुदा  से  भी क्या  बारहा ।
मिला  जितना  उसमें  बसर कीजिये ।।

मैं हाज़िर हूँ मक़तल में बेख़ौफ़ आज ।
मेरे  कातिलों  को  ख़बर  कीजिये ।।

      डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
       मौलिक अप्रकाशित

जब ख़्वाब कोई टूट के बिखरा यहीं कहीं

221 2121 1221 212

जलता है कोई दिल जो किसी का यहीं कहीं ।
दिखता  धुआँ  है दूर से उठता  यही  कहीं ।।

इस जात धर्म  वाली  सियासत  के  बीच में ।
खोता  रहा   है  देश  का  मुद्दा  यहीँ  कहीं ।।

कैसे  मैं कह  दूँ पाक  है  बस्ती मेरे अज़ीज ।
मुझसे  मेरा  खुदा भी तो रूठा  यहीँ  कहीं ।।

सरकार   की   नजर  में  यहाँ  जो  गरीब  हैं।
निकला उन्हीं के पास खज़ाना  यहीं  कहीं ।।

कायम रहेगी कैसे .हंसी .अब  लबों पे यार ।
जब  ख़ाब कोई टूट के बिखरा  यहीँ  कहीं ।।

पाबंदियों  के   दौर   के   जिन्दा  ख़याल हैं ।
लगता   मुहब्बतों   पे  है पहरा  यहीं  कहीं।।

ये   तिश्नगी   बुझेगी   तेरी   ढूढ़    तो   उसे ।
बहता   है   तेरे   वास्ते   दरिया यहीं  कहीं ।।

अक्सर  मुसीबतों में  वो  आया  करीब  है ।
शायद ख़ुदा भी पास ही रहता यहीं .कहीँ ।।

देखा जो उसको आज रकीबों के  साथ में ।
मेरा  यकीं  भी  शान  से  टूटा  यहीँ .कहीं ।।

इतना. बता  रही  हैं  मेरी  हिचकियाँ .मुझे ।
महबूब . मेरा  शह्र  में .ठहरा  यहीं  कहीं।।

दीदारे  हुस्न  की  ज़रा बेताबियां तो देख ।
शायद  जमीं  पे चाँद है  उतरा यहीं कहीं ।।

      डॉ नवीन मणि त्रिपाठी 
      मौलिक अप्रकाशित

I

वस्ल का इक इशारा हुआ तो हुआ

ख़ैरमक़दम   हमारा   हुआ . तो   हुआ ।
वार  फिर. कातिलाना  हुआ .तो हुआ ।।

फर्क पड़ता  कहाँ  अब सियासत पे है ।
रिश्वतों  पर  खुलासा  हुआ  तो  हुआ ।।

ये  ज़रुरी  था  सच  की फ़ज़ा के लिए ।
झूठ पर जुल्म  ढाना  हुआ  तो  हुआ ।।

आप  आये  यहाँ   तीरगी   खो  गयी ।
मेरे  घर  में  उजाला  हुआ  तो  हुआ ।।

हिज्र   के  दौर  में  हम  सँभलते  रहे ।
आपके  बिन गुजारा  हुआ  तो हुआ ।।

मुझको मालूम  था  तीर  तरकश् में है।
आप  का  मैं  निशाना हुआ तो हुआ ।।

फिक्र उनको नहीं दिल पे गुजरेगी क्या ।
जुल्म इक आशिकाना  हुआ तो हुआ ।।

याद आईं  हैं  जब  उसकी  रानाइयाँ ।
इश्क़  पर  फिर तराना हुआ तो हुआ ।।

कैसे  कह  दूं  भला   बेवफा  मैं  उसे ।
वक्त  पर  जो  सहारा  हुआ  तो हुआ ।।

कोई परवा न कीजै ज़माने  की  अब ।
वस्ल का इक  इशारा  हुआ तो हुआ ।।

छोड़  दें  कैसे  वो  इश्क़  की  राह को ।
हुस्न पर दिल दिवाना हुआ तो हुआ ।।
   
       डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
       मौलिक अप्रकाशित

वो मक़तल में कैसी फ़ज़ा मांगते हैं

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वो मक़तल  में  कैसी  फ़ज़ा माँगते  हैं ।।
जो क़ातिल से उसकी अदा माँगते  हैं ।।

जुनूने  शलभ  की  हिमाकत  तो देखो ।
चरागों  से  अपनी   क़ज़ा   माँगते   हैं।।

उन्हें  भी  मिला  रब  सुना  कुफ्र  में  है ।
जो अक्सर  खुदा  से  जफ़ा  माँगते  हैं ।।

असर  हो  रहा  क्या जमाने का उन पर ।
वो    क्यूँ   बारहा   आईना   माँगते  हैं ।।

अजब कश्मकश है मैं किससे कहूँ अब ।
यहां   बेवफ़ा    ही   वफ़ा   माँगते    हैं ।।

जिन्हें पीना आया  है नजरों  से  साकी ।
वही   होश   आते   नशा    माँगते   हैं ।।

उन्हीं  को  मिली  है  सजाएं  यहां  पर ।
मेरे  हक़   में  जो   फैसला  माँगते  हैं ।।

शज़र  सूखते  जब   कहीं  तिश्नगी  से।
तो बादल  से  काली  घटा  माँगते  हैं ।।

मैं दिल कैसे दूँ खेलने  के  लिए  अब ।
जरा   सोचिए  आप  क्या  माँगते  हैं ।।

करो कुछ तो उनपे भी नज़रे  इनायत ।
तुम्हारे   लिए  जो   दुआ  माँगते  हैं ।।

यकीनन  वही   लोग  होंगे   सितमगर।
जो  रिश्ता  यहाँ  जिस्म का  माँगते  हैं ।।

         डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
         मौलिक अप्रकाशित

ख्वाहिशें फिर न तुम्हें मौत का सामां कर दें

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किस  तरह  तेरे  हवाले  वो  दिलो  जां  कर दें ।
मन की  बस्ती को भला कैसे  बियाबां कर दें ।।

तीरगी   देखिए   मुद्दत   से  यहां  कायम   है ।
हो  सके  आप  मेरे  घर  में  चरागां  कर  दें ।।

ये शहीदों  की  अमानत  है  बचाओ  इसको ।
मुल्क  टुकड़ो  में  न ये देश के नादां  कर  दें ।।

अब हवाओं की अदावत को समझ ले माझी ।
वो  समन्दर  में  न  पैदा  कहीं  तूफ़ां  कर दें ।।

जात-मज़हब के ही मुद्दों पे टिकट हासिल कर ।
ऐसे   नेता   ही  न  बर्बाद   गुलिस्तां   कर  दें ।।

इतनी तालीम  पे  बेचें  वो  पकौड़ा  ही  क्यूँ ।
कैसे  पिजरे  में  कहीं कैद वो अरमां कर दें ।।

सिर्फ मतलब  के  लिए आये  हमारे दर पर ।
हमसे  उम्मीद  जिन्हें  जान ही कुर्बा  कर दें ।।

इश्क़   इतना   न  बढ़ाओ  के  जमाने  वाले ।
अब मुकर्रर मेरे घर पर ही  निगहबॉ  कर दें ।।

जन्नते   हूर  के  उस  ख़ाब  से  बचना  यारो ।।
ख़्वाहिशें फिर न तुम्हें मौत का सामां कर दें ।।

ग़ज़व-ए-हिन्द  पढ़ाते  हैं बड़े  शौक  से  जो ।
एक दिन  तुझको न वो गैर  मुसलमाँ कर दें ।।

अब ज़रूरत है मुहिम आप चलाएं  साहब  ।।
जिन्हें  इंसां  नहीं  कहते  उन्हें  इंसां  कर दें ।।

ज़ख़्म  देकर  वो  मेरे  दर्द   की हालत  पूछे ।
कुछ  सवालात  उसे   फिर  न पशेमाँ कर दें ।

         डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

आख़िर हमारे पास क्या ईमान ही तो है

221, 2121, 1221, 212

दैरो   हरम   से   दूर   वो   अंजान   ही  तो  है ।
होंगी   ही   उससे   गल्तियां  इंसान  ही  तो है ।। 

हमको  तबाह  करके  तुझे  क्या मिलेगा अब ।
आखिर  हमारे  पास  क्या, ईमान ही तो है ।। 

खुलकर  जम्हूरियत  ने  ये अखबार  से कहा ।
सारा   फसाद   आपका  उन्वान  ही  तो है ।। 

खोने  लगा  है  शह्र का अम्नो सुकून अब  ।
इंसां  सियासतों  से   परेशान   ही तो  है ।। 

जिसने  तुम्हें   हिजाब  में  रक्खा  है  रात  दिन ।
वह भी  तुम्हारे  हुस्न  का  दरबान  ही  तो है ।। 

देखी  नहीं  किसी  ने  कभी  मौत  की  डगर ।
कहते   हैं  लोग  रास्ता  वीरान   ही   तो  है ।। 

इक दिन इसे है जाना  इसी घर को छोड़ कर ।
ये रुह  मेरे  जिस्म  की  मेहमान  ही  तो   है।। 

जिंदा खुदा के  रहमो करम पर मैं आज तक ।
 बेशक़ ये रब के प्यार का एहसान  ही  तो है ।। 

क्या बिक गया कलम है तेरा खास दाम  पर ।
लिक्खा तेरी किताब में गुणगान  ही तो  है ।।

बरबाद   गांव   हो   गया  ठर्रा  खरीद   कर ।
कहने को एक  छोटी सी दूकान  ही तो है ।।

अब हौसलों के साथ ही जलना तुझे चराग ।
यह भी गुज़र ही जाएगा तूफान ही तो है ।।

माना कि मुश्किलात हैं मंजिल के आस पास।
बस टूट के न  बिखरे ये अरमान  ही  तो है ।। 

मत आ  तू  बेनकाब  जमाने  की  है  नजर ।
हर शख्स तेरे हुस्न से अनजान  ही  तो  है ।। 

तुमने कहाँ  है देखी अभी दर्दो गम  की रात ।
तुमको  भी दौरे हिज्र का अनुमान ही तो है ।। 

यूँ  मुस्कुरा  के आप ने नज़रें झुका ली जब ।
मुझको लगा ये इश्क़ का फरमान ही तो है ।। 

दिन  भर  संवारता  है  कोई  ज़ुल्फ़ बारहा ।
ये आशिक़ी के  वक्त का  ऐलान  ही तो है ।। 

तुझको अभी नहीं है कोई तज्रिबा ए  इश्क़ ।
मेरी नजर  में  तू अभी  नादान  ही  तो  है ।। 

          डॉ नवीन मणि त्रिपाठी 
         मौलिक अप्रकाशित

कैसे कह दूँ मैं तुझे प्यार निभाना आया

2122 1122 1122 22

जब  मुलाकात में सौ बार  बहाना आया ।।
कैसे कह दूँ मैं तुझे प्यार निभाना आया ।।

क़ातिले इश्क़ का इल्ज़ाम लगा जब तुम पर ।
पैरवी करने यहां सारा ज़माना आया ।।

आज की शाम तेरी बज़्म में हंगामा है।
मुद्दतों बाद जो मौसम ये सुहाना आया ।।

रिन्द की तिश्नगी से रूबरू था तू साकी ।
और इल्जाम है तुझको न पिलाना आया ।।

उसकी ख़ामोश मुहब्बत पे है चर्चा इतनी ।
राज  उल्फ़त  का उसे  कैसे छुपाना ।।

गुफ्तगूं  होने  लगी  शह्र  के बाजारों में ।
मेरे लब पे जो तेरा एक तराना आया ।।

इतना मासूम न समझो वो जवां है यारो ।
वक्त  के  साथ  उसे  तीर  चलाना आया ।।

मुस्कुराते हैं यहां लोग उन्हीं पर अक्सर ।
फिक्र जिनको न अभी तक है उड़ाना आया ।।

शोर बरपा है सियासत के गुनहगारों पर ।
जब से संसद में उसे मुद्दा उठाना आया ।।

लूट लेता है तू कानून बनाकर मुझको ।
तेरे हिस्से में मेरे घर का खज़ाना आया ।।

फ़लसफा कुछ तू सुना जंगे हुनर का उनको ।
जिनकी आंखों को फ़क़त अश्क़ बहाना आया ।।

       -डॉ नवीन मणि त्रिपाठी 
        मौलिक अप्रकाशित

नींद क्यों रात भर नहीं आती

2122 1212 22
जब  सबा  लौट  कर  नहीं   आती ।
तेरी   ख़ुश्बू    इधर   नहीं   आती ।।

मत   कहो    यार   चाँद  निकलेगा ।
कोई   सूरत    नज़र   नहीं   आती।।

बात   कुछ  तो  छुपा  रहे  हैं   वो।
नींद   क्यों  रात  भर  नहीं  आती ।।

मीडिया  जब  से  बिक  गयी देखो ।
तब  से  सच्ची  खबर  नहीं  आती ।।

ज्वार  के  मुन्तज़िर  वो  साहिल हैं ।
पास   जिनके  लहर   नहीं  आती ।।

आप   तो   फितरतन   छुपा   लेते ।
चोट  गर  कुछ  उभर  नहीं आती ।।

याद  शब  भर   मुझे  सताती  जब ।
वक्त  पर  तब  सहर  नहीं  आती ।।

दिल ज़िगर पलकें कुछ बिछाओ तो  ।
हूर   यूँ   ही    उतर   नहीं   आती ।।

तू   उसी   राह.  पर   चलेगा.  क्या ।
घर  तेरे  जो   डगर   नहीं . आती ।।

कैद   करते   न  जुगनुओं  को  तो ।
तीरगी   इस   कदर   नहीं   आती ।।

      -- डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

दरमियाँ हुस्न पर्दादारी है

2122 1212 22
दरमियाँ    हुस्न    पर्दा    दारी   है ।
कैसे    कह   दूँ   कि   बेक़रारी   है ।।

कौन  कहता  बहुत  ख़फ़ा  हैं  वो ।
आना  जाना  तो  उनका   जारी है ।।

ये    बताता   है    नूर    चेहरे   का ।
रात    उसने   कहाँ    गुजारी    है ।।

कैसे  कर  लूं  यकीन  मैं  तुम  पर ।
साफ   नीयत   कहाँ   तुम्हारी  है ।।

अब  तलक  होश  में  नहीं  हो तुम ।
आंख  में   इश्क़   की  खुमारी   है ।।

 दाद  किस्मत  की उसके  देता  हूँ ।
जुल्फ   जिसने   तेरी   सँवारी   है ।।

आप   ऐसे   क्यूँ   बात   करते   हैं ।
जैसे  मुझ   पर    कोई   उधारी   है ।।

अब  खजाना  वहाँ  से  निकलेगा ।
रोज   मिलता  जहाँ  भिखारी   है ।।

शर्त   वह  फिर   लगा  के   हारेगा ।
फ़ितरते   इश्क़   तो   जुआरी   है ।।

ऐ  कबूतर  जरा  सँभल   के  उड़ ।
देखता  अब   तुझे    शिकारी   है ।।

वोट   की   ख़्वाहिशें   जरा  देखो ।
कोई    नेता   बना    मदारी     है ।।

हिज्र   में  अश्क़  बह  गए   इतने ।
अब  तलक वो  नदी तो  खारी  है ।।

मौत   से   कौन   बच  सका  यारो ।
आज  हम  कल  तुम्हारी  बारी  है ।।

       डॉ नवीन मणि त्रिपाठी 
        मौलिक अप्रकाशित

उसकी फ़ितरत शराब की सी है

यह  ख़बर  इज़्तिराब   की  सी  है ।
बात  जब   इंकलाब  की  सी  है ।।

वह  बगावत  पे  आज   उतरेगा ।
उसकी  आदत  नवाब  की  सी है ।।

हम सफ़र  ढूढना बहुत मुश्किल ।
सोच जब  इंतखाब  की  सी  है ।।

देखकर   जिसको   बेख़ुदी   में  हूँ ।
उसकी  फ़ितरत शराब की सी है ।।

आ  रहे   रात  में   सनम  शायद ।
रोशनी  आफ़ताब   की  सी  है ।।

रोज  पढ़ता हूँ उसको  शिद्द्त  से ।
वो जो मेरी  किताब  की  सी  है ।।

उसकी  ख़ुश्बू  बता रही  मुझको ।
पंखुरी   वह  गुलाब  की   सी  है ।।

हिज्र  में  अश्क़  इस  तरह  बहते ।
धार कुछ तो "चिनाब" की  सी है ।।

कुछ तो होगी अना की फितरत भी ।
जो  ग़ज़ल  महताब   की   सी  है ।।

उसके  चहरे   से  हट  गई   देखो ।
ओढ़नी  जो   नक़ाब  की  सी  है ।।

        डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
         मौलिक अप्रकाशित

सारी बस्ती तबाह कर बैठे

2122 1212 22

खूब   सूरत    गुनाह    कर    बैठे ।
हुस्न  पर   वो   निगाह  कर  बैठे ।।

आप  गुजरे  गली  से  जब  उनकी ।
सारी   बस्ती   तबाह   कर   बैठे ।।

कुछ  असर  हो  गया  जमाने  का ।
ज़ुल्फ़  वो भी  सियाह  कर  बैठे ।।

देख  कर  जो  गए  थे गुलशन को ।
आज  फूलों  की  चाह  कर बैठे ।।

जख्म दिल का अभी हरा है क्या ।
आप फिर क्यों  कराह कर बैठे ।।

किस  तरह  से जलाएं  मेरा घर ।
लोग  मुझसे  सलाह  कर   बैठे ।।

लोग नफरत की इस सियासत में ।
आपको    बादशाह    कर   बैठे ।।

दुश्मनी  जब  चले  निभाने  हम ।
वो   हमें  खैरख्वाह   कर   बैठे ।।

उस  जमीं  का उदास  मंजर  था ।
हम   जिसे    ईदगाह   कर  बैठे ।।

वो तो सरकार की सियासत थी ।
आप  क्यूँ  आत्मदाह  कर बैठे ।।

अब तस्सल्ली  उन्हें  मुबारक़ हो ।
मुल्क  जो  कत्लगाह  कर  बैठे ।।

उन शहीदों  को है सलाम मेरा ।
मौत से  जो निक़ाह  कर  बैठे ।।

सिर्फ  पहुँचे   वही  खुदा  तक  हैं ।
इश्क़  जो    बेपनाह   कर   बैठे ।।

     डॉ - नवीन मणि त्रिपाठी 
      मौलिक अप्रकाशित

पर ये इल्ज़ाम भी तूफ़ान के सर जाना था

2122 1122 1122 22

मेरी कश्ती का मुक़द्दर ही बिखर जाना था ।
पर ये इल्ज़ाम भी तूफ़ान के सर जाना था ।।

तिश्नगी ले के वो आया है वहाँ से देखो।।
रिन्द को पी के जहाँ हद से गुज़र जाना था ।।

आ गया कैसे तेरे दर पे  खुदा ही जाने ।
मुझको ये भी न था मालूम किधर जाना था ।।

आप हालात से कुछ देर तो लड़ते साहब ।
इतनी जल्दी भी नहीं आपको डर जाना था ।।

सारे शिकवे गिले काफ़ूर हो जाते दिल के ।
चाँद को चुपके से आँगन में उतर जाना था ।।

मुस्कुरा कर जो मेरा हाल वो पूछा मुझसे ।
दर्द मेरा  तो सरे आम उभर जाना था ।।

वक्त के साथ रही होगी सबा की कोशिश ।
हुस्न को बहती हवाओं में निखर जाना था ।।

बाद मुद्दत के जो इक रात मिली थी तुमको।
मुन्तज़िर ख़्वाब थे कुछ देर ठहर जाना ।।

चल दिये छोड़ के तूफ़ां में वो तन्हा मुझको ।
इस तरह मैंने मुसीबत का सफ़र जाना था ।।

याद करते ही कहानी, वो हरा दिखता है ।
वक्त के साथ मेरा ज़ख्म जो भर जाना था ।।

इश्क़ का भूत चढ़ा सर पे उसे क्या कहिये ।
उम्र ढलने पे मियाँ कुछ तो सुधर जाना था ।।

      डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी

हौसलों को मत दबाया केजिये

वक्त  ऐसे   मत  गँवाया  कीजिये ।
आइना  उनको  दिखाया कीजिये।।

मुल्क  में  है  इन्तकामी  हौसला ।
हौसलों को मत दबाया कीजिये ।।

आग उगलेगी सुख़नवर की कलम ।
अब न कोई सच छुपाया कीजिये ।।

ख़ाब  जो  देखें  हमारे  कत्ल का ।
हर सितम उनपे ही ढाया कीजिये ।।

उनके हमले से  फ़जीहत हो  गयी।
दिल यहाँ अपना जलाया कीजिये ।।

तब्सिरा करके  नये  हालात  पर ।
आप अपना  घर  बचाया कीजिये ।।

ये ताल्लुक अब तलक जिंदा था क्यूँ ।
प्यार इतना मत दिखाया कीजिये ।।

खर्च क्यों  हो  देश  के  गद्दार पर ।
बोझ  इतना  मत उठाया कीजिये ।।

दर्द  क्या  है  ये  उन्हें भी हो पता ।
कुछ निशाना भी लगाया कीजिये ।।

क्यूँ यकीं करते रहे उन पर मियाँ ।
इस तरह धोखा न खाया कीजिये ।।

देखिए अंजाम  अपनी फौज  का ।
अब कबूतर मत उड़ाया कीजिये ।।

        डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

और कितनी अभी अर्थियां चाहिए

212 212 212 212 

क्यूँ   हमें  बारहा  सिसकियां    चाहिए ।
और   उनको   बड़ी   कुर्सियां चाहिए ।।

देश  ख़ामोश   कब   तक  रहेगा  यहां ।
और  कितनी अभी  अर्थियां  चाहिए ।।

जो  वतन  को  मुहब्बत  का  पैगाम दें ।
इस तरह  मुल्क़  में  बस्तियां  चाहिए।।

बच न  जाए कहीं  कातिलों   का  जहां ।
जंग की अब हमें  झलकियां  चाहिए ।।

सिर्फ अखबार तक आपकी है  नज़र ।
आपको  तो  बहुत  सुर्खियाँ  चाहिए ।।

वो समझते हैं  बारूद  के  शब्द   को ।
हाथ में अब  नहीं  तख्तियां  चाहिए ।।

चन्द    गुंजाइशें   क्यूँ   बचें   बात   की ।
बंद  हमको  सभी  खिड़कियाँ  चाहिए ।।

अब शराफ़त की  बातें  बहुत हो चुकीं।
दुश्मनी   आपके    दरमियाँ    चाहिए ।।

कुछ तो करके दिखाएँ वतन को  जरा ।
अब  नहीं आपकी  धमकियाँ  चाहिए ।।

पीस का तमगा  बेशक़  मुबारक  तुम्हें ।
पर  हमें   जीत   की  बाजियाँ चाहिये ।।

        -डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

क्यों  अदू  के  साथ  ही  बनते  गए  रिश्ते कई ।
टूट  कर  देखा  शज़र  से  उड़  गए  पत्ते कई ।।

चुग गई जब खेत चिड़िया क्या करेंगे लोग अब ।
हाथ  को  मलते हुए अब  देखिए  मिलते  कई ।।

मुल्कमें दहशत का आलम हर तरफ खामोशियाँ  
गिर  गयी हो जब सियासत नाग तो डसते कई।

किस तरह से मुल्क हो आज़ाद इस आतंक से
जब   हमारे  देश  मे  गद्दार   ही पलते   कई ।।

हरकतें  तुमने तो कर दी अब रहो  तैयार  तुम ।
अब  पड़ेंगे   गाल  पर  तेरे  यहां  जूते  कई ।।

ऐ   भिखारी   चादरें   फैला के  तू  जिंदा  यहां ।
बिक चुकी  तेरी  रियासत दिख रहे  बिकते कई ।।

कोई महबूबा हो फारूक या कोई  सिद्धू  दिखे ।
देश  की  बेशक  दलाली   नीच  हैं  करते  कई ।।

अब इरादा कर लिया है कुछ सबक तुझको मिले,
हौसलों  से   हमने   देखे  हैं  किले  ढहते  कई ।।

              जय हिंद

(अदू - दुश्मन)

              जय हिंद

ये जीस्त मौत से करने सलाम उतरी है

1212  1122 1212 22/112

क़ज़ा का करके मेरी इंतिज़ाम उतरी है ।
अभी अभी जो मेरे घर मे शाम उतरी है ।।

तमाम  उम्र  का ले तामझाम उतरी है ।
ये जीस्त मौत से करने सलाम उतरी है ।।

अदाएं देख के उसकी ये लग रहा है मुझे ।
कि लेने  हूर  कोई  इंतिकाम  उतरी है ।।

वो शाम होते ही जायेगा मैकदे में फिर ।।
शराब  उसको  बनाकर गुलाम उतरी है ।।

मरेंगे आज  यहां  बेगुनाह  फिर देखो ।।
सड़क पे ले के सियासत अवाम उतरी है ।।

सियाह शब में उजालों की पैठ फिर होगी ।
किरन ये चाँद  का लेकर पयाम उतरी है ।।

बिखेर दी है फिजाओं में फिर नई ख़ुश्बू ।
हवा  जो आज लिए अहतराम उतरी है।।
   
ख़बर  है मुझको  तेरे इश्क़ की बलन्दी से ।
जवानी हो के बहुत बेलगाम  उतरी है ।।

सुना रहा हूँ ज़माने को आज फिर से मैं ।
जो याद जेहन में  लेकर  कलाम उतरी है ।।

वो बेवफा से मुहब्बत न छोड़ पायेगा ।
कि जिसके वास्ते इज्ज़त तमाम उतरी है ।।

जो उड़ रही थी तस्व्वुर में एक मुद्दत से ।
जमीं पे नींद वो करने हराम उतरी है ।।

        मौलिक अप्रकाशित 
         डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

जो घर से दूर जा बेटी सयानी छोड़ आये हैं

1222 1222 1222 1222
फ़ना  के  बाद भी अपनी  निशानी छोड़ आये हैं।
जिसे तुम याद रक्खो वो  कहानी छोड़ आए हैं ।।

सुकूँ  मिलता हमें  कैसे  यहां  परदेश  में  आकर ।
विलखती मां की आंखों में जो पानी छोड़ आये हैं।।

कलेजा मुँह को आता है जरा माँ  बाप से पूछो ।
जो  घर  से  दूर जा बेटी सयानी छोड़ आये हैं ।।

हमें  इंसाफ का उनसे तकाज़ा  ही नहीं  था कुछ ।
अदालत में तो हम भी हक़ बयानी  छोड़ आये हैं।l

तेरे  प्रश्नों  का उत्तर था तेरे लहजे  में  ही  लेकिन।
शराफ़त  के  लिए हम  बदज़ुबानी छोड़ आये हैं ।।

यहां   सब  मुन्तज़िर हैं शेर का  ऊला  कहेगा  तू । 
जो   तेरी डायरी में  एक सानी  छोड़   आये.   हैं ।।

ये कैसा हिज़्र काआलम यहां तो शबभी क़ातिल है।
कहाँ हम वस्ल की रातें सुहानी  छोड़ आये हैं ।।

मेरी पहचान खारिज़ कर गए  मजबूर होकर वो ।
जो   मेरे   शह्र  में  यादें पुरानी   छोड़  आये  हैं ।।

पड़े निन्यानबे के चक्करों में हम  यहाँ जब से ।
तभी  से दोस्तों की मेजबानी   छोड़  आये  हैं ।।

बड़े चर्चे हैं साहब आपके उस  शह्र  में बेशक़ ।
वहाँ क्या आप भी कुछ लन्तरानी छोड़ आये हैं।।

वही शायर दिलों पर राज करते आ रहे अब तक।
जो अपने शेर में दिलकश रवानी  छोड़ आये हैं।।

समझ आता नहीं कुछ भी उसे यूँ बारहा पढ़कर।
के हम हुस्नो अदा की तर्जुमानी छोड़ आये हैं।।

       डॉ नवीन मणि त्रिपाठी 
        मौलिक अप्रकाशित

रविवार, 10 फ़रवरी 2019

सच पे लटका हुआ खंज़र है कई सदियों से

2122 1122 1122 22

सच  पे  लटका  हुआ ख़ंजर  है  कई सदियों से ।
कैसे   ज़िन्दा  ये  सुख़नवर  है  कई  सदियों  से ।।

लूट   जाते    हैं  यहाँ  देश   को    कुर्सी   वाले ।
देश  का  ये  ही  मुक़द्दर  है  कई   सदियों  से ।।

क्या   बताएंगे   मियाँ  आप   तरक्क़ी  मुझको ।
शह्र  में  भूख  का  मंजर  है  कई  सदियों  से ।।

आप  भी  ढूढ़  नहीं  पाए  ख़ुदा  की  रहमत  ।
आपके  साथ  तो  रहबर  है  कई  सदियों से ।।

दौलतें  हो   गईं  लिल्लाह   न  जानें   कितनीं ।
घर सभी  को  न मयस्सर है  कई  सदियों से ।।

बढ़ न पाया है मुहब्बत का शजर आज तलक ।
ये  जमीं  देखिए   बंजर  है  कई  सदियों.  से ।।

ऐ मुसाफ़िर  तू जरा  सोच  समझकर  चलना ।
अम्न  की  राह  में पत्थर  है कई  सदियों से ।।

दाम  उनका  भी   लगाते   हैं  खरीदार  यहाँ ।
जिनका ईमान  तो  कट्टर है  कई सदियों से ।।

पीते   हैं   लोग  यहाँ   ज़ह्र  भी  मज़बूरी.  में ।
ज़िंदगी .मौत .से  बद्तर  है  कई सदियों  से ।।

बाद मरने के उन्हें  मिल सकी  है जन्नत क्या ?
प्रश्न  यह  भी  तो  निरुत्तर है कई सदियों  से ।।

ख़ास किरदार से हासिल तो करें कुछ  साहब ।
दास्तानों  में   सिकन्दर . है  कई  सदियों   से ।।

      --डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

छलके जो उनकी आंख से जज़्बात ख़ुद ब ख़ुद

221 2121 1221 212

छलके जो उनकी आंख से जज़्बात ख़ुद ब ख़ुद ।
आए  मेरी  ज़ुबाँ   पे   सवालात  ख़ुद  ब   ख़ुद ।।

किस्मत    खुदा   ने   ऐसी   बनाई  है   दोस्तों ।
मिलती  हमें  गमों  की  ये सौगात ख़ुद ब ख़ुद ।।

चर्चा   है  शह्र  भर में   इसी  बात  का  सनम ।
बाँटी  है तूने  इश्क़  की  ख़ैरात  ख़ुद  ब  ख़ुद ।।

मेहनत पे कुछभरोसा होऔर हो नियत भी साफ़।
बढ़ जाएगी  तुम्हारी भी  औक़ात  ख़ुद  ब ख़ुद ।।

दहशत   भरी  घुटन   से  ये  अहसास  हो  रहा ।
बदलेगी  कुछ  तो सूरते   हालात  ख़ुद  ब ख़ुद ।।

मुद्दत  से  इस  तरह  से  मुझे  देखते  हो  क्यूँ ।
होने लगे न  प्यार  की बरसात  ख़ुद  ब  खुद ।।

इक  दिन  तुम्हारे  हुस्न  का  दीदार  क्या  हुआ ।
अब  तक  हैं क़ैद  ज़ेहन में लम्हात ख़ुद ब ख़ुद ।।

कुछ तो असर  हुआ  है  मेरी  चाहतों  का  यार ।
करने  लगे  वो  मुझसे  मुलाकात  खुद ब  खुद ।।

इन  ख़्वाहिशों   के दौर  में  थोड़ा  तो सब्र  कर ।
आएगी  तेरे  हक़  में  कोई  रात  ख़ुद  ब  ख़ुद ।।

        --डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
            मौलिक अप्रकाशित

जलता चराग हूँ मैं हवाएं मुझे न दो

221     2121      1221       212

इतनी  मेरे  करम  की  सजाएं   मुझे   न   दो ।
जलता    चराग   हूँ  मैं   हवाएं  मुझे   न  दो ।।

कर दे कहीं न  ख़ाक मुझे तिश्नगी की आग।
हो   दूर    मैकदा   ये   दुआएं   मुझे   न  दो ।।

जीना मुहाल कर दे यहां खुशबुओं का  दौर ।
घुट जाए  मेरा  दम  वो  फ़जाएँ  मुझे  न दो ।।

यूँ  ही तमाम  फर्ज  अधूरे  हैं  अब  तलक ।
सर  पर अभी  से और  बलाएँ  मुझे न दो ।।

पूछा  करो  गुनाह  कभी  अपनी  रूह  से ।
गर   बेकसूर   हूँ  तो  सजाएं   मुझे  न  दो ।।

इतना भी कम नहीं कि तग़ाफ़ुल में जी रहा ।
यूँ महफिलों में अपनी जफाएँ मुझे न दो ।।

कर लोगे तुम वसूल  मेरे जिस्म  से भी सूद ।
ख़ैरात  कह  के  और  वफ़ाएँ  मुझे  न  दो ।।

कुछ  तो शरारतें थीं तुम्हारी अदा की  यार ।
मुज़रिम बना के सारी  खताएँ  मुझे  न दो ।।

गर बेसबब  ही  रूठ के  जाना  तुम्हें  है  तो ।
हर  बार  दूर  जा  के  सदाएं   मुझे   न  दो ।।

खुश हूँ मैं आज हिज्र के भी दरमियाँ  बहुत ।
बीमारे   ग़म  की  यार  दवाएं   मुझे  न  दो ।।

               डॉ नवीन मणि त्रिपाठी 
                मौलिक अप्रकाशित

क़ज़ा के वास्ते ये

1212     1122     1212      22

क़ज़ा  के  वास्ते  ये  इंतिज़ाम  किसका  है ।
तेरे   दयार   में  जीना   हराम  किसका  है ।।

खुशी  अदू  को  बहुत  है  जरा  पता  कीजै ।
बड़े  सलीके  से  आया  सलाम किसका  है ।।

दिखे  हैं  रिन्द  बहुत  तिश्नगी के साथ वहाँ ।
कोई  बताए  गली  में  मुकाम  किसका  है ।।

जो  बेचता   था  सरे  आम  जिंदगी  अपनी ।
खबर तो कर वो अभीतक गुलाम किसका है।।

वो  पूछ  बैठे  हमीं  से  यूँ  अजनबी   बनकर ।
के उनके हुस्न पे लिक्खा कलाम किसका है ।।

यही  सवाल  है साकी  से  आज महफ़िल में ।
छलक  गया  जो सरे बज़्म जाम किसका है ।।

फ़ना  हुए  जो वतन  पर  वो  नाम भूल  गए ।
तुम्हारे मुल्क़ में अब  एहतराम  किसका  है ।।

ग़रीब  आज  भी भूखा मिला है फिर मुझको ।
यहां  फ़िज़ूल  का ये  ताम-झाम किसका  है ।।

        -डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

कोई रिश्ता पुराना चल रहा है

1222 1222 122
अभी  तक आना जाना चल रहा है ।
कोई  रिश्ता  पुराना  चल  रहा  है ।।

सुना  है  शह्र   की  चर्चा  में  आगे ।
तुम्हारा ही  फ़साना  चल  रहा  है ।।

इधर  दिल पर लगी  है चोट  गहरी ।
उधर  तो  मुस्कुराना  चल  रहा  है ।।

कहीं तरसी  जमीं  है आब के बिन ।
कहीं  मौसम  सुहाना  चल  रहा है ।।

तुझे  बख़्शा  खुदा  ने  हुस्न  इतना ।
तेरे   पीछे  ज़माना  चल   रहा  है ।।

दिया  था  जो  वसीयत में तुम्हें क्या ।
अभी  तक वह  खज़ाना  चल रहा है ।।

तुम्हारे     मैक़दे    में    देखता   हूँ ।
बहुत  पीना  पिलाना  चल  रहा है ।।

ग़ज़ल को गुनगुनाने की थी हसरत ।
तसव्वुर  में   तराना  चल   रहा   है ।।

यूँ   उसकी  शायरी  पे  जाइये  मत । 
वहाँ  मक़सद  रिझाना  चल  रहा  है ।।

अरूज़-ओ-फ़न से अब डरना है कैसा।
तुम्हारे   साथ   दाना  चल  रहा   है ।।

शराफ़त  बिक  रही बाज़ार  में अब ।
शरीफ़ों  का   बयाना  चल  रहा  है ।।

       डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

गर लुटे सारा खज़ाना चुप रहो

ग़ज़ल 
2122 2122 212 

आज  उनका  है ज़माना  चुप रहो ।
गर  लुटे  सारा  खज़ाना  चुप रहो ।।

क्या  दिया है पांच  वर्षों  में   मुझे ।
मांगते  हो  मेहनताना  चुप  रहो ।।

रोटियों   के  चंद  टुकड़े  डालकर ।
मेरी  गैरत  आजमाना  चुप   रहो ।।

मंदिरों मस्ज़िद  से  उनका  वास्ता ।
हरकतें  हैं  वहिसियाना  चुप  रहों ।।

लुट गया जुमलों पे सारा मुल्क जब ।
फिर नये  सपने दिखाना चुप रहो ।।

दांव  तो  अच्छे  चले थे  जीत  के ।
हार पर अब तिलमिलाना चुप रहो ।।

दी  गई  नादान  को बन्दूक  जब ।
बन  गया खुद ही निशाना चुप रहो ।।

हम तुम्हारी पढ़ चुके फ़ितरत मियाँ ।
अब  मुझे  अपना  बनाना  चुप रहो ।।

हक़  हमारा  छीन  कर  तुम  ले गए ।
और अब हमको लुभाना चुप रहो ।।

हम गरीबों  का  उड़ाया  है मज़ाक ।
हाले दिल  पर मुस्कुराना चुप रहो ।।

इन्तकामी   हौसला   मेरा  भी   है ।
धूल  तुमको  है  चटाना  चुप  रहो ।।

       -- डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी 
         मौलिक अप्रकाशित

शायद वह दीवानी है

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शायद    वह    दीवानी   है ।
लगती   जो  अनजानी   है ।।

दिलवर से मिलना है क्या ।
चाल   बड़ी   मस्तानी  है ।।

इश्क़  हुआ है क्या  उसको ।
आँखों    में   तो   पानी  है ।।

खोए    खोए    रहते    हो ।
यह   भी   इक  नादानी  है ।।

शमअ पे  तो परवानों  को।
हँसकर  जान  गवानी  है।।

उंगली उस पर खूब उठी ।
रिश्ता  क्या  जिस्मानी  है ।।

चर्चा   जोरों  पर  उसकी ।
कैसी  अजब  जवानी  है ।।

जिस पर नज़रें उनकी हैं ।
हुस्न   कोई   नूरानी   है ।।

दर्दो   ग़म    में   जीते  तुम ।
कुछ  तो पास निशानी  है ।।

जाते हो जब महफ़िल से ।
छा   जाती    वीरानी   है ।।

कसमें  खाना छोड़ो जी ।
तुमको कहाँ निभानी है ।।

चेहरा पढ़ कर  कहता  हूँ ।
लम्बी   कोई  कहानी   है ।।

ज़िस्म के पिजरे से इक़ दिन।
चिड़िया तो उड़ जानी है ।।

        डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

सुनाता ही रहा मुझको मुहब्बत की ग़ज़ल कोई

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तरन्नुम बन  ज़ुबाँ  से  जब  कभी  निकली  ग़ज़ल  कोई ।
सुनाता  ही   रहा   मुझको  मुहब्बत   की  ग़ज़ल   कोई ।।

बहुत   चर्चे  में  है  वो  आजकल   मफ़हूम  को  लेकर ।
जवां   होने   लगी  फिर  से  पुरानी  सी  ग़ज़ल  कोई ।।

कभी   तो   मुस्कुराती   है   कभी   ग़मगीन   होती    है  ।
हर  इक इंसान  को  बेशक़ असर करती ग़ज़ल कोई ।।

तुम्हें    देखा  जो  मैंने  और  बाकी  शेर   कह  डाले ।
हुई   है   बाद   मुद्दत    के   यहाँ    पूरी    ग़ज़ल  कोई ।। 

सुना   देने   की  बेचैनी   दिखी   है   उसके   चेहरे   पर ।
किसी  की  याद  में  जो  रात  भर लिक्खी ग़ज़ल कोई ।।

हजारों  लफ्ज़  भी कमतर लगे क्या क्या लिखूँ तुम पर ।
तुम्हारे   हुस्न   की   तारीफ़  में   बहकी   ग़ज़ल   कोई ।।

यहाँ  दीवानगी  की  हद  से   गुज़रा  है  ज़माना   तब ।
हमारे  साज़  पर  जब  जब  तेरी  सजती ग़ज़ल कोई ।।

अरुजी  से   कहा   मैंने  कवाफी बह्र   से  पहले ।
जिग़र  का  खून  भी लगता है तब ढ़लती ग़ज़ल कोई ।।

         डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
         मौलिक अप्रकाशित