ग़ज़ल
2122 2122 212
आज उनका है ज़माना चुप रहो ।
गर लुटे सारा खज़ाना चुप रहो ।।
क्या दिया है पांच वर्षों में मुझे ।
मांगते हो मेहनताना चुप रहो ।।
रोटियों के चंद टुकड़े डालकर ।
मेरी गैरत आजमाना चुप रहो ।।
मंदिरों मस्ज़िद से उनका वास्ता ।
हरकतें हैं वहिसियाना चुप रहों ।।
लुट गया जुमलों पे सारा मुल्क जब ।
फिर नये सपने दिखाना चुप रहो ।।
दांव तो अच्छे चले थे जीत के ।
हार पर अब तिलमिलाना चुप रहो ।।
दी गई नादान को बन्दूक जब ।
बन गया खुद ही निशाना चुप रहो ।।
हम तुम्हारी पढ़ चुके फ़ितरत मियाँ ।
अब मुझे अपना बनाना चुप रहो ।।
हक़ हमारा छीन कर तुम ले गए ।
और अब हमको लुभाना चुप रहो ।।
हम गरीबों का उड़ाया है मज़ाक ।
हाले दिल पर मुस्कुराना चुप रहो ।।
इन्तकामी हौसला मेरा भी है ।
धूल तुमको है चटाना चुप रहो ।।
-- डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
2122 2122 212
आज उनका है ज़माना चुप रहो ।
गर लुटे सारा खज़ाना चुप रहो ।।
क्या दिया है पांच वर्षों में मुझे ।
मांगते हो मेहनताना चुप रहो ।।
रोटियों के चंद टुकड़े डालकर ।
मेरी गैरत आजमाना चुप रहो ।।
मंदिरों मस्ज़िद से उनका वास्ता ।
हरकतें हैं वहिसियाना चुप रहों ।।
लुट गया जुमलों पे सारा मुल्क जब ।
फिर नये सपने दिखाना चुप रहो ।।
दांव तो अच्छे चले थे जीत के ।
हार पर अब तिलमिलाना चुप रहो ।।
दी गई नादान को बन्दूक जब ।
बन गया खुद ही निशाना चुप रहो ।।
हम तुम्हारी पढ़ चुके फ़ितरत मियाँ ।
अब मुझे अपना बनाना चुप रहो ।।
हक़ हमारा छीन कर तुम ले गए ।
और अब हमको लुभाना चुप रहो ।।
हम गरीबों का उड़ाया है मज़ाक ।
हाले दिल पर मुस्कुराना चुप रहो ।।
इन्तकामी हौसला मेरा भी है ।
धूल तुमको है चटाना चुप रहो ।।
-- डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें