1222 1222 1222 1222
तरन्नुम बन ज़ुबाँ से जब कभी निकली ग़ज़ल कोई ।
सुनाता ही रहा मुझको मुहब्बत की ग़ज़ल कोई ।।
बहुत चर्चे में है वो आजकल मफ़हूम को लेकर ।
जवां होने लगी फिर से पुरानी सी ग़ज़ल कोई ।।
कभी तो मुस्कुराती है कभी ग़मगीन होती है ।
हर इक इंसान को बेशक़ असर करती ग़ज़ल कोई ।।
तुम्हें देखा जो मैंने और बाकी शेर कह डाले ।
हुई है बाद मुद्दत के यहाँ पूरी ग़ज़ल कोई ।।
सुना देने की बेचैनी दिखी है उसके चेहरे पर ।
किसी की याद में जो रात भर लिक्खी ग़ज़ल कोई ।।
हजारों लफ्ज़ भी कमतर लगे क्या क्या लिखूँ तुम पर ।
तुम्हारे हुस्न की तारीफ़ में बहकी ग़ज़ल कोई ।।
यहाँ दीवानगी की हद से गुज़रा है ज़माना तब ।
हमारे साज़ पर जब जब तेरी सजती ग़ज़ल कोई ।।
अरुजी से कहा मैंने कवाफी बह्र से पहले ।
जिग़र का खून भी लगता है तब ढ़लती ग़ज़ल कोई ।।
डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
तरन्नुम बन ज़ुबाँ से जब कभी निकली ग़ज़ल कोई ।
सुनाता ही रहा मुझको मुहब्बत की ग़ज़ल कोई ।।
बहुत चर्चे में है वो आजकल मफ़हूम को लेकर ।
जवां होने लगी फिर से पुरानी सी ग़ज़ल कोई ।।
कभी तो मुस्कुराती है कभी ग़मगीन होती है ।
हर इक इंसान को बेशक़ असर करती ग़ज़ल कोई ।।
तुम्हें देखा जो मैंने और बाकी शेर कह डाले ।
हुई है बाद मुद्दत के यहाँ पूरी ग़ज़ल कोई ।।
सुना देने की बेचैनी दिखी है उसके चेहरे पर ।
किसी की याद में जो रात भर लिक्खी ग़ज़ल कोई ।।
हजारों लफ्ज़ भी कमतर लगे क्या क्या लिखूँ तुम पर ।
तुम्हारे हुस्न की तारीफ़ में बहकी ग़ज़ल कोई ।।
यहाँ दीवानगी की हद से गुज़रा है ज़माना तब ।
हमारे साज़ पर जब जब तेरी सजती ग़ज़ल कोई ।।
अरुजी से कहा मैंने कवाफी बह्र से पहले ।
जिग़र का खून भी लगता है तब ढ़लती ग़ज़ल कोई ।।
डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
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