तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

2012 अवधी भाषा में छंद

             आप सब को नव वर्ष २०१२ पर हार्दिक बधाई देता हूँ | प्रभु की महान अनुकम्पा सदैव आप के साथ रहे तथा नूतन वर्ष में आपकी लेखनी साहित्य सृजन के क्षेत्र में अनवरत अनंत ऊँचाइयों   को छूती  रहे | 

       नव वर्ष 2012  आ गया है | मैंने अपनी भावनाओं के माध्यम से  अवधी भाषा में मंगल कामना हेतु  कुछ छंद समाज के चार वर्गों को समर्पित करने का प्रयास किया है | विश्वास  है, आपका स्नेह मेरी रचना के लिए जरूर मिलेगा | 



                   वर्ष २०१२ पर मंगल   कामना लिए हुए समाज के चारों वर्गों को समर्पित क्षेत्रीय अवधी भाषा में  छंद -

धन  धान्य  भरै,घर क्लेश मिटै, मिटि  जावहि जीवन कै अधियारो |
 यहि  बारह अंक से ,बारह राशि  को,  वर्ष मिलै  तुमका उजियारो ||
बस  प्रीति की  पाँखुरी  में  सगरौ ,तुम मोहक मोहक  पंथ  निहारो |
लडिके  पडिके   सब  फूलैं फलै ,यही  देखि तुम्हारे हों  नैन सुखारो ||


निज   कर्म  के  रंग  न  भंग  परै, तुलसी   कै  बयार  बहै  नित द्वारो |
माया  की  माया  से  दूरि राखें प्रभु ,चंचला  गनपति  संग  पधारो ||
कहत   नवीन   जौ   नूतन   साल से, नेह   के  नवरस  पान चखारो | 
फूल   गुलाब   सरीखी   खिलै ,होई  मंगल  मय   नव  वर्ष  तुम्हारो ||


रक्त   की  बात  करौ  न सखा , यहि वर्ष कै चाँद भलो  अति  न्यारो |
जरदारी  गिलानी कियानी  सबै, मिटि जावहिं आपन पाप के भारो||
बसुधैव  कुटुम्ब  की  ज्योति  लई यहि  देश  की  पावन भूमि पुकारो |
नव   देश  रचौ  नव  रंग  भरौ , नव   नीरज  के  जस  वर्ष  ऊकारो ||


खटिया - मचिया, कथरी - दउरी ,ड्योढ़ी  मा  सजै तुम्हरे घर बारो |
बिटिया  कै बियाहे  कै  हेंगा  गडै ,नव  पाहुन  आवै  तिहारे वसारो ||
खइरी  भइसी  कै   दूध   बढे, बढ़ी  जवाहिं   पूँछहिं   पूँछि   मुहारो |
नारिया खपड़ा कै विसारो तनि, यहि साल नवा घर मा  सिर डारो ||












शनिवार, 24 दिसंबर 2011

पथिक तुझे आराम कहाँ है ?

चलता  जा  विश्राम  कहाँ  है ?
पथिक  तुझे  आराम कहाँ  है ?

                             नित  नव  प्रभात  की बेला में |
                             मिलते  हो  किसी  झमेला  में ||
                             खोते   हो   अविरल   रेला   में |
                             टूटे     हो    ठेलम    ठेला   में ||
                             माया    नगरी    के   मेला  में |
                             भटका  तू  आज   उजेला   में ||

इस अमिट  लेख  की पंक्ति में |
ढूंढो    पूर्ण    विराम   कहाँ   है ?

चलता  जा   विश्राम  कहाँ   है ?
पथिक  तुझे  आराम  कहाँ  है ?

     
                         अमिय    गरल   बन   जाता   है |
                         उद्गार    कहीं    खो   जाता   है ||
                         पथ  कंटक   मय   हो  जाता   है |
                          तब   हृदय  व्यथित हो जाता है ||
                          तेरा    स्वर    राग    सुनाता   है |
                          नव   पंथ   तुझे  मिल  जाता  है ||

मृग  मरीचिका से जीवन  में |
सुख के जल का नाम कहाँ है ?
चलता  जा  विश्राम  कहाँ  है ?
पथिक  तुझे आराम कहाँ  है ?

                            प्रति  क्षण  परिवर्तन शाश्वत है |
                            प्रति   पल   स्पंदन   जाग्रत  है ||
                            क्यों   आशंका   से   आहत   है |
                            इस  कर्म  योनि  का स्वागत है ||
                            मृत्यु   तो   स्वयं   निशावत  है |
                            चित  से  क्यों इसको ध्यावत है ||

इस  महा काल   के  प्रांगण  में |
सुबह   हुई  तो  शाम  कहाँ   है ?

 चलता   जा   विश्राम  कहाँ  है ?
पथिक  तुझे  आराम  कहाँ  है ?

                                    सब   अंधकार   मिट  जायेगा |
                                    चैतन्य   दीप   जल   जायेगा ||
                                    तू   मर्म   मार्ग    का   पायेगा |
                                    जब  ज्ञान  चक्षु  खुल  जायेगा ||
                                     पर  हित   साधन  हो  जायेगा |
                                     तब   साध्य मोक्ष बन जायेगा ||

मंदिर  मस्जिद  गिरिजा  घर में |
मिलता  तुझ  को  राम  कहाँ है ?
 चलता   जा  विश्राम  कहाँ   है ?
पथिक   तुझे  आराम  कहाँ   है ?

                                        तुम   प्रणय  बांसुरी   ले लेना |
                                        स्वर   भावुकता   के  पी लेना ||
                                        छोटा   है   जीवन   जी   लेना |
                                        मधुमयता   का   अमृत पीना ||
                                        संवेदन   हीन     नहीं     होना |
                                        हर   साँस  जिन्दगी की जीना ||

चिता  जल उठेगी  जब  तेरी |
इस  जीवन  का धाम वहाँ है ||

चलता  जा  विश्राम कहाँ  है ?
पथिक  तुझे  आराम कहाँ  है ?                       
 

रविवार, 18 दिसंबर 2011

रंग मुक्तक के

       रंग   मुक्तक के
               -नवीन

हमारी जिन्दगी  की इक, कहानी  बन गयी  हो  तुम।
यहॉ मैखाने  की इक मय  पुरानी बन  गयी  हो तुम।।
तेरे   दीदार   से   मदहोशियों   के  फन  थिरकते   हैं।
लबों  पे  प्यास की पहली निशानी बन गयी  हो तुम।।


एक  खुशहाल  बस्ती  की , वीरानी  बन गयी हो तुम।
वहॉ  ठहरी  घटाओं  की, जवानी  बन  गयी  हो  तुम।।
लिखा हूॅ ग्रंथ तेरी हर, अदा  का, जिक्र कर  कर  के।
वो  शायर  गैर हैं  जिसकी दीवानी बन गयी  हो  तुम।।


बसन्ती  इन  हवाओं  में ,सुहानी  बन  गयी   हो तुम ।
आशिकों के  लिए कितनी गुमानी बन  गयी  हो तुम।।
तुम्हारे  ज्वार  के  खतरों  की उम्मीदें तो  थीं  लेकिन।
हुआ   अफसोस   जब देखा, सुनामी बन गयी हो तुम।।


चमन  महका है शायद रात रानी  बन  गयी  हो  तुम।
भ्रमर  की  नेह  में   मकरन्द, दानी बन गयी हो तुम।।
जिन्दगी  की  दुवाओं  नें   भरी   झोली   तुम्हारी    है।
वो प्यासा मर  नहीं सकता जो पानी बन गयी हो तुम।।

रविवार, 11 दिसंबर 2011

अभिशप्त लोकतंत्र

   अभिशप्त लोकतंत्र
                      
                                 -¬नवीन  


  एक महान आहुति,           
स्वतंत्र राष्ट्र की परिणिति।
असंख्य कुर्बानियॉं ,
खण्डित हुई ब
ेड़ियॉ।
एक स्वर्णिम राष्ट्र की परिकल्पना।
राम राज्य का सपना।
कहॉ हुआ अपना ?
हम कहॉ पा सके,
समानता का अधिकार ?
नहीं रोक सके,
मानवता पर अत्याचार।
पूजीवादी व्यवस्था का पोषण,
गरीबों का शोषण।
अब एक सामान्य सी,
घटना हो गयी है।
देश की तश्वीर बदल गयी है।
न्याय की दूकान धड़ल्ले से चल रही है।
कहीं साक्ष्य तो कहीं गवाही बिक रही है।
ईमान का रेट ,
बहुत सस्ता हो गया है।
पेट की भूख से ,
इन्सान खस्ता हो गया है।
हमने खो दिया है मकसद,
आजादी का।
उन्हें 15से 20फीसदी,
जनसर्मथन हासिल है।
जनमत आबादी का।
क्या हम अवैध सत्ता के
गुलाम हो चुके हैं ?
स्वतंत्रता का मुकाम खो चुके हैं?
वे अरबों के घोटाले करते हैं।
देश को चूसते हैं।
अपनी सुरक्षा का कनून बुनते हैं।
जनता के सामने मासूम दिखते हैं।
हमारी आवज पर,
ताला लगाने की तैयारी है।
सोशल नेटवर्किंग की बारी है।
न्यूज चैनल पर भी ,
उनका शिकंजा है।
हमारी अभिव्यक्ति पर लग चुका
तमंचा है।
हम उन्हें पद से वापस बुलाने का
अधिकार चाहते हैं।
दो बटे तीन देश की पूर्ण जनमत की
सरकार चाहते हैं।
हमें यह अवैध चुनाव प्रणाली ,
बदलनी ही होगी।
समस्त मतदाताओं के मतदान की
अनिवार्यता करनी ही होगी।
हमें नहीं चाहिए ,
मात्र बीस फीसदी जनमत की सरकार।
नहीं बर्दाश्त करेंगे ,
बीस दलों की बाजार।
पक्ष-विपक्ष के रूप में
मात्र दो दल चाहिए।
एक लोकतंत्र.....
सबल चाहिए।
जॉति पॉति व धार्मिक,
भावनाओं के, भक्षक है वे।
राष्ट्रय एकता के विध्वंसक हैं वे।
जनता अपने चारों स्तम्भों से
उदास है।
गुलामी जैसी स्थिति के आसपास है।
क्यों ना एक और संग्राम छेड़ा जाए।
सारे काले धन को निचोड़ा जाए।
जागो यह एक ,
खतरनाक जनतंत्र है।
ऐसा लगता है,
देश आज भी परतंत्र है।
देश को लूटता हुआ...... 

यह कैसा गणतंत्र है।
मानो या ना मानो ,
यह तो एक........
अभिशप्त लोकतंत्र है।
यह तो एक
अभिशप्त लोकतंत्र है।।

        -नवीन मणि त्रिपाठी

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

मुक्तक की दहलीज से

तेरी पाजेब की घुघरू ने दिल से  कुछ कहा होगा.|
लबों ने बंदिशों के शख्त पहरों को सहा होगा ||

यहाँ गुजरी हैं रातें किस कदर पूछो ना तुम हम से |
तसव्वुर में तेरी तश्वीर का हाले बयाँ होगा ||

यहाँ ढूढ़ा वहाँ ढूँढा ना जाने किस जहाँ ढूँढा  |
किसी बेदर्द हाकिम से गुनाहों की सजा ढूँढा ||
वफाओं के परिंदे उड़ गये हैं इस जहाँ से अब |
जालिमों के चमन में मैंने कातिल का पता ढूँढा ||

शमाँ रंगीन है फिर से गुले गुलफाम हो जाओ  |
मोहब्बत के लिए दिल से कभी बदनाम हो जाओ ||
चुभन का दर्द कैसा है जख्म तस्लीम कर देगा || 
वक्त की इस अदा पे तुम भी कत्ले आम हो जाओ ||

ये साकी की शराफत थी जाम को कम दिया होगा |
तुम्हारी आँख की लाली को उसने पढ़ लिया होगा ||
बहुत खामोशियों से मत पियो ऐसी शराबों को |
छलकती हैं ये आँखों से कलेजा जल गया होगा ||
                                                       नवीन