तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

तुम बड़े सलीके से रूह में उतरते हो।


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इस  तरह  मुहब्बत  में  दिल  लुटा के चलते  हो ।
कह  रहा  जमाना  ये  तुम  भी  कितने सस्ते हो ।।

मैंकदा   है  वो   चहरा  रिन्द  भी   नशे   में   हैं ।
बेहिसाब   पीकर   तुम   रात भर  सँभलते  हो ।।

टूट  कर   मैं   बिखरा  हूँ  अपने  आशियाने   में ।
क्या गिला है अब  मुझसे  रंग क्यूँ   बदलते  हो ।।

दिल  चुरा   लिया  तुमने  हुस्न की  नुमाइस   में ।
बेनकाब  होकर  क्यूँ   घर  से तुम  निकलते  हो ।।

तिश्नगी  जलाती  है  जब  भी तुझको देखा  है ।।
तुम  बड़े   सलीके   से   रूह  में   उतरते   हो ।।

मिल गया तुम्हारा  खत  पढ़ लिया  फ़साना भी ।
आग   सी   जवानी   में  बेसबब  सुलगते   हो ।।

कुछ ग़ज़ल का जादू है कुछ अदा भी कमसिन है ।
देखता  हूँ  कुछ  दिन  से  इश्क  में  संवरते  हो ।।

आसुओं  का   रिश्ता  है अब  तेरी  मुहब्बत से ।
जानकर हकीकत को दिल से क्यों मुकरते हो ।।

इस  तरह  जवानी  पर  नाज़  क्या  करोगे तुम ।
तुमतो उसकी सूरत पे  मोम  सा  पिघलते  हो ।।

तुम   छुपा   नहीं   पाए   दर्द  वो  जुदाई   का ।
आंख  सब  बताती है किस तरह सिसकते हो ।।

ग़ज़ल - उनकी सूरत भी निखर जाती है

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जब कभी छत पे नज़र जाती है ।
उनकी सूरत भी निखर जाती है ।।

पा के महबूब के आने की खबर।
वो  करीने  से  सँवर  जाती है ।।

कोई उल्फत की हवा है शायद ।
ज़ुल्फ़ लहरा के बिखर जाती है ।।

इक मुहब्बत का इरादा लेकर ।
रोज साहिल पे लहर जाती है ।।

बेसबब इश्क हुआ क्या उस से ।
वो तसव्वुर में  ठहर  जाती है ।।

अब न चर्चा हो तेरी महफ़िल में ।
चोट फिर से वो उभर जाती है ।।

हिज्र की बात करूँ क्या उससे ।
बात सुनकर वो सिहर जाती है ।।

याद क़ातिल की तरह चुपके से ।
दिल मे हौले से उतर जाती है ।।

रोज मजबूरियों की दहशत में ।
जिंदगी पर भी क़तर जाती है ।

गर खुदा की है इनायत तुझ पे ।
मौत छूकर भी गुज़र जाती है ।।

            -नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल - गुज़र रहा हूँ उसी डगर से

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है  आई   खुश्बू   तेरी  जिधर  से ।
गुज़र रहा  हूँ   उसी  डगर  से ।।

नशे का आलम न  पूछ मुझसे ।
मैं   पी   रहा हूँ  तेरी  नज़र  से ।।

हयात  मेरी  भी  कर  दे  रोशन ।
ये  इल्तिज़ा  है  मेरी  क़मर  से ।।

हजार   पलके   बिछी  हुई   हैं ।
गुज़र  रहे  हैं वो   रहगुजर  से ।।

खफा हैं वो  मुफलिसी  से  मेरी ।
जो  तौलते  थे   मुझे  गुहर  से ।।

यूँ  तोड़कर  तुम  वफ़ा  के  वादे ।
निकल  रहे  हो  मिरे  शहर  से ।।

उन्हें   पता    हैं   मेरी    खताएँ ।
वे  राज   लेते   हैं   मोतबर  से ।।

न कर तू साजिश न काट उसको ।
मिलेगा  साया  उसी  शजर  से ।।

हैं आसुओं को छुपाना मुश्किल ।
निकल पड़े   हैं जो चश्मे तर से ।।

बड़ी   उम्मीदें  थी  आज  उससे ।
मिला  कहाँ  वो  मुझे   जिगर  से ।।

         --नवीन मणि त्रिपाठी 
          मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल - है बहुत अच्छा तरीका जुल्म ढाने के लिए

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ढूढते   हैं   वो   बहाना    रूठ   जाने  के   लिए ।
है  बहुत  अच्छा  तरीका  ज़ुल्म  ढाने  के  लिए ।।

इक    तेरा  मासूम  चेहरा   इक   मेरी   दीवानगी ।
रह   गईं   यादें  फकत  शायद  मिटाने  के   लिए ।।

फिर  वही  क़ातिल  निगाहें  और अदायें आपकी ।
कर  रहीं  हैं  कुछ  सियासत दिल जलाने  के लिए ।।

घर मेरा  रोशन  है  अब भी आपके जाने के बाद ।
हैं  चरागे  ग़म  यहाँ   घर  जगमगाने   के   लिए ।।

चैन  से मैं सो  रहा  था  कब्र  में अपनी  तो  क्यों ।
तुम  यहाँ  भी  आ गए मुझको  सताने  के  लिए ।।

ये   समंदर   चल   पड़ा  लेने   उसे  आगोश   में ।
उठ  रहीं  लहरें  बहुत  दरिया को पाने  के  लिए ।।

शक़ की बुनियादों पे कोई ताज कायम कब रहा ।
आशिकी   होती  कहाँ   है  आजमाने  के  लिए ।।

हो  गया   कुर्बान  वो  मजबूरियों  के  नाम  पर ।
कौन  जीना  चाहता  है  मुँह  छुपाने  के  लिए ।।

इश्क़ में तू  डूब  लेकिन याद रख इतना सबक़ ।
लोग मिलते हैं यहाँ  ख़्वाहिश जताने  के लिए ।।

इस  तरह  तपती हुई प्यासी जमीं  को देखकर ।
आ रहे बादल यहाँ  कुछ  दिन बिताने के लिए ।।

बारिशों  के  दौर  में  अब   हो  गए  चेहरे   हरे ।
है  किसी  मधुमास का यौवन रिझाने के लिए ।।

               नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल - वादे तमाम कर के उजाले गुजर गए

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यूँ  तीरगी   के  साथ  ज़माने   गुज़र   गए ।
वादे   तमाम   करके  उजाले  मुकर  गए ।।

शायद अलग था हुस्न किसी कोहिनूर का ।
जन्नत  की  चाहतों  में  हजारों  नफ़र गए ।।

ख़त पढ़ के आपका वो जलाता नहीं कभी ।
कुछ तो  पुराने ज़ख़्म थे पढ़कर उभर गए।।

उसने  मेरे  जमीर  को  आदाब क्या किया ।
सारे   तमाशबीनों   के   चेहरे   उतर   गए ।।

क्या देखता मैं  और  गुलों  की  बहार  को ।
पहली  नज़र में आप  ही दिल मे ठहर गए ।।

अरमान था मेरा  कि मैं पहुँचूँगा  चाँद तक ।
इस  बेरुखी  के  दौर में  सपने  बिखर गए ।।

कुछ  खैर ख्वाह भी थे पुराने शजर के पास ।
आयीं  जो आँधियाँ तो वो जाने किधर गए ।।

तकदीर   हौसलों   से  बनाने  चला  था  वो ।
आखिर  गयी  हयात  सितारे  जिधर   गए ।।

        ---नवीन मणि त्रिपाठी 
       मौलिक अप्रकाशित

मेरा मुद्दा भी सलीके से उठाते होंगे

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लोग तन्हाई  में  जब  आप  को पाते होंगे।
मेरा  मुद्दा  भी  सलीके  से  उठाते  होंगे ।।

लौटती   होगी   सबा  कोई  बहाना  लेकर ।
ख्वाहिशें  ले  के  सभी  रात बिताते होंगे ।।

सरफ़रोशी  की तमन्ना लिए अपने दिल में  । 
देख मक़तल में नए लोग भी आते होंगे ।।

सब्र करता है यहां कौन मुहब्बत में भला।
कुछ लियाकत का असर आप छुपाते होंगे ।।

उम्र भर आप रकीबों को न पहचान सके ।।
गैर  कंधो  से  वे  बन्दूक   चलाते   होंगे ।।

इस हक़ीक़त की जमाने को खबर है शायद ।।
ख्वाब  रातों  में उन्हें  खूब  सताते होंगे ।।

इश्क़ छुपता ही नहीं लाख छुपाकर देखो ।
खूब  चर्चे   वो  सरेआम  कराते    होंगे ।।

ज़ुल्फ़ लहरा के गुज़रते वो अदाकारी में ।
आग  सीने  में  कई  बार  लगाते   होंगे ।।

     -- नवीन मणि त्रिपाठी 
      मौलिक अप्रकाशित

निशानियां वो प्यार की मिटा गए

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जगी  थीं  जो  भी  हसरतें, सुला  गए ।
निशानियाँ  वो   प्यार  की  मिटा  गए।।

उन्हें  था   तीरगी  से प्यार  क्या बहुत ।
उम्मीद का  चिराग  तक  बुझा   गए ।।

पता   चला   न, सर्द  कब  हुई   हवा।
ठिठुर  ठिठुर  के  रात  हम बिता गए ।।

लिखा  हुआ  था  जो  मेरे  नसीब में ।
रकीब  थे   जो  फैसले   सुना   गए ।।

नज़र  पड़ी  न  आसुओं  पे  आपकी ।
जो  मुस्कुरा  के  मेरा  दिल दुखा गये ।।

न   जाने  कहकशॉ   से  टूटकर   कई ।
सितारे  क्यों  ज़मीं  पे  आज  आ गए ।।

गुलों  के  हाल  पे  कली  जो थी दुखी ।
उसी   की   लोग  कीमतें   लगा   गए ।।

      --नवीन मणि त्रिपाठी

रोज मुझको आजमाया जा रहा है

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फिर कोई  सिक्का  उछाला जा  रहा है ।
रोज   मुझको  आजमाया  जा रहा  है ।।

मानिये  सच   बात  मेरी आप भी कुछ ।
देश  को   बुद्धू   बनाया  जा  रहा  है ।।

कौन कहता है यहां  सब  ठीक चलता ।
हर  गधा  सर  पे  बिठाया जा  रहा  है।।

हो  रहे   मतरूक  सारे  हक   यहां पर।
राज  अंग्रेजों  का   लाया  जा  रहा  है।।

हर  जगह रिश्वत  है  जिंदा  देखिये  तो।
खूब  बन्दर  को  नचाया  जा  रहा  है  ।।

कुछ हिफाज़त कर सकें तो कीजिये अब ।
बेसबब   ही   जुल्म   ढाया   जा  रहा  है ।।

इंतकामी    हौसलों    के    साथ    देखो ।
मुल्क  को  नस्तर  चुभाया  जा  रहा  है ।।

लूट का जिन  पर लगा  इल्जाम  था कल ।
फिर  इलक्शन  में  जिताया  जा  रहा  है ।।

कल तलक नजरों में था जो इक खुदा सा।
आज    नजरों   से   उतारा  जा  रहा  है ।।

क्या  लियाकत  आदमी की  है यहां पर ।
आइना  खुलकर  दिखाया  जा  रहा  है ।।

         - नवीन मणि त्रिपाठी

बुधवार, 6 दिसंबर 2017

ग़ज़ल - रंग बदला है आदमी शायद

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वक्त के  साथ  खो  गयी  शायद ।
तेरे  होठों  की  वो हँसी शायद ।।

बन रहे  लोग  कत्ल  के मुजरिम।
कुछ तो फैली है भुखमरी शायद ।।

मां का आँचल वो छोड़ आया है ।
एक  रोटी  कहीं  दिखी शायद ।।

है   बुढापे    में    इंतजार   उसे ।
हैं  उमीदें   बची  खुची  शायद ।।

लोग मसरूफ़  अब यहां तक हैं ।
हो  गयी  बन्द  बन्दगी  शायद ।।

खूब  मतलब  परस्त  है  देखो ।
रंग बदला  है आदमी  शायद ।।

वक्त के  साथ  खो  गयी  शायद ।
तेरे  होठों  की  वो हँसी शायद ।।

देखिये  आंख  में  जरा  उनकी।
है मुकम्मल अभी  नमी शायद ।।

मुद्दतों   बाद   रंग   चेहरे   पर ।
इक मुलाकात हो गई  शायद ।।

जिंदगी   मैं  गुजार  भी   लेता ।
हो गयी आपकी  कमी शायद ।।

नेकियाँ   बेअसर    हुईं   सारी ।
हसरतें थीं  बहुत बड़ी  शायद ।।

पूछ कर  हाल  फिर  मेरे घर का ।
कर  गए आप  दिल्लगी शायद ।।

आपकी   हरकतें   बताती   हैं ।
अक्ल से भी है दुश्मनी शायद ।।

जख्म पर ज़ख्म खा  रहे हो तुम।
आंख अब भी नहीं खुली शायद ।।

            नवीन मणि त्रिपाठी
            मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल -उसकी सूरत नई नई शायद

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उसकी   सूरत  नई  नई  देखो।
तिश्नगी  फिर जगा  गई  देखो।।

उड़ रही हैं  सियाह  जुल्फें अब ।
कोई ताज़ा  हवा  चली  देखो ।।

बिजलियाँ  वो  गिरा  के  मानेंगे ।
आज नज़रें झुकी झुकी  देखो ।।

खींच  लाई है आपको  दर तक ।
आपकी  आज  बेखुदी   देखो ।।

रात   गुजरी   है  आपकी  कैसी ।
सिलवटों   से   बयां  हुई  देखो ।।

डूब   जाएं   न   वो  समंदर   में ।
देखिये फिर  लहर  उठी  देखो ।।

हट  गया  जब नकाब  चेहरे  से ।
कोई  बस्ती यहां  जली   देखो ।।

वो तसव्वुर में लिख रहा  ग़ज़लें ।
याद आती  है आशिकी  देखो ।।

खत को पढ़कर जला दिया उसने ।
चोट दिल पर कहीं  लगी   देखो।।

उसके दिल में धुंआ अभी तक है ।
आग अब तक नहीं बुझी  देखो ।।
      
          नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल - अब वो हिंदुस्तान नहीं है

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जिंदा  क्या  अरमान  नहीं  है ।
तुझमें  शायद  जान  नहीं  है ।।

कतरा  कतरा अम्न  जला  है । 
अब  वो   हिंदुस्तान  नहीं  है ।।

चन्द   फरेबी   के   वादों   से ।
ये  जनता अनजान  नहीं  है ।।

कौन     सुनेगा    तेरी    बातें ।
सच की जब पहचान  नहीं है।।

निकलो जरा भरम से तुम भी ।
टैक्स   कोई  आसान  नहीं  है।।

रोज    कमाई    गाढ़ी   लुटती ।
मत  समझो अनुमान  नहीं  है ।। 

पढलिख कर वो बना  निठल्ला।
क्या    तुमको  संज्ञान  नहीं  है।।

कुर्सी    पाकर   ऐंठ   रहे   हो ।
कहते  हो  अभिमान  नहीं  है ।।

जख्म सभी जिंदा हैं अब तक ।
दिल   मेरा   नादान   नहीं  है ।।

जात पात की  लीक से हटना ।
अंदर  से  फरमान   नहीं   है ।।

समझ  रहे   हैं  हम भी साहब ।
पक्की  अभी जुबान  नहीं  है ।।

          --नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल - हाँ मैंने उल्फ़त का मंजर देखा है

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आंखों   में   आबाद   समंदर  देखा  है ।
हाँ  मैंने  उल्फ़त  का  मंजर  देखा  है ।।

कुछ चाहत में जलते हैं सब  रोज  यहां ।
चाँद  जला  तो जलता अम्बर  देखा है ।।

आज अना  से  हार  गया  कोई  पोरस ।
तुझमें पलता एक  सिकन्दर  देखा  है ।।

एक तबस्सुम बदल गया फरमान  मेरा ।
मैंने    तेरे    साथ   मुकद्दर   देखा  है ।।

कुछ दिन से रहता है वह उलझा उलझा ।
शायद  उसने  मन  के  अंदर  देखा  है ।।

बिन  बरसे  क्यूँ  बादल  सारे  गुज़र गए ।
मैंने  उसकी  जमीं  को  बंजर  देखा  है ।।

हो  जाते  जज़्बात  बयां  सब  बातों से ।
नाम उसी का लब पर अक्सर देखा है ।। 

खूब  दुआएं   जो   देते  थे   जीने  की ।
आज  उन्हीं  हाथों  में  ख़ंजर देखा है ।।

ज़ह्र पिये बस मीरा और सुकरात नहीं ।
मुल्क के हर इंसान में शंकर देखा है ।।

लाचारी का हाल न पूछो अब मुझसे ।।
तेरी खातिर सब कुछ खोकर देखा है ।।     

       --नवीन मणि त्रिपाठी
       मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल- दोष क्या है

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पलायन  का  वरण  तो दोष  क्या है ।
प्रगति  पर  है ग्रहण तो  दोष क्या है ।।

न अपनाओ कभी  तुम  वह  प्रशंसा।
पृथक हो अनुकरण तो दोष  क्या है ।।

जिन्हें शिक्षा मिली व्यभिचार की  ही ।
करें  सीता  हरण  तो  दोष  क्या  है ।।

मरी हो  सभ्यता  प्रतिदिन  जहां पर ।
नया हो  उद्धरण  तो दोष  क्या है ।।

अनावश्यक  अहं   की  तुष्टि से  बच ।
करेंगे   संवरण   तो   दोष   क्या  है ।।

वो  भूखों  मर  रहा  है  कौन  समझे ।
हुआ है  आहरण  तो  दोष  क्या  है ।।

जमी  घटने  लगी इस  देश  मे  अब ।
असम्भव संभरण  तो  दोष  क्या है ।।

यथा  सम्भव कहाँ  उसने किया कब ।
नहीं  हो  अंतरण  तो  दोष  क्या  है ।।

उपेक्षित  हो  गयी  जब  संस्कृति  ये ।
गलत  हो  आचरण तो दोष  क्या  है ।।

        -नवीन मणि त्रिपाठी
      मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल - हो भी सकता है

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तुम्हारे  जश्न  से पहले धमाका  हो  भी सकता है ।
ये हिंदुस्तान है प्यारे  तमाशा  हो  भी  सकता है ।।

अभी मत मुस्कुराओ आप इतना मुतमइन होकर ।
चुनावों में कोई लम्बा खुलासा हो भी सकता है ।।

ये माना आप ने हक़  पर लगा  रक्खी है पाबन्दी ।
है मुझमें इल्म गर जिंदा गुजारा हो भी सकता है ।।

मिटा देने की कोशिश कर मगर वो जात  ऊंची है ।
खुदा  को रोक ले उसका सहारा  हो भी सकता है ।।

न  मारो  लात  पेटों   पर  यहां  भूखे   सवर्णो  के ।
कभी  सरकार पर उनका निशाना हो भी सकता है ।।

बहुत  वादे  हुए  हैं  अब  नजर   बारीकियों  पे  है ।
ये लॉलीपॉप से चलता ज़माना हो भी  सकता  है ।।

तरसता है  यहां  टेलेंट  अब  रोटी भी  है  मुश्किल ।
सुलगती आग का अब वो  निवाला हो भी सकता है।।

अभी तो  वक्त है करके दिखाओ आप कुछ  साहब ।
चमन में आपका कायम ये जलवा हो भी सकता है।।

{अगर सीने में कहीं आग सुलग रही तो कमेंट में दिखनी चाहिए }

      --नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल -दर्द बनकर वो बहुत याद भी आया होगा

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गर शराफ़त में उसे  सर  पे बिठाया  होगा ।
ज़ुल्म उसने भी  बड़ी शान से  ढाया होगा ।।

लोग एहसान कहाँ  याद  रखे  हैं आलिम ।
दर्द बनकर  वो बहुत याद भी आया होगा ।।

हिज्र की रात के आलम का तसव्वुर है मुझे ।
आंख  से  अश्क़  तेरे  गाल पे आया होगा ।।

मुद्दतों  बाद  तलक  तीरगी  का  है  आलम ।
कोई सूरज  भी वो मगरिब में उगाया होगा ।।

कर  गया  है  वो मुहब्बत में फना की बातें ।
फिर शिकारी ने कहीं जाल बिछाया होगा ।।

कत्ल करने का हुनर सीख  लिया  है उसने ।
तीर  आंखों  से  कई  बार  चलाया.  होगा ।।

ढूढ़ मन्दिर में न मस्जिद में खुदा को  अब तू ।
वो यकीनन  तेरे  दिल मे  ही  समाया होगा ।।

कौन  कहता  है  कि वादे  से मुकर  जाता है ।
चाँद  शरमा  के  तेरी  बज्म  में  आया होगा ।।

इत्तिफाकन ही नज़र मिल गयी थी जो उनसे ।
क्या खबर थी वो मेरी जान का साया होगा ।।

मेरी  बरबाद  मुहब्बत  की  निशानी  लेकर ।
ख्वाब  उसने भी  सरेआम  जलाया  होगा ।।

क्या लिखूं आज सितमगर की जफ़ा का किस्सा ।
बाद   मरने   के   मिरे   जश्न   मनाया    होगा ।।

          -- नवीन मणि त्रिपाठी 
            मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल - अब बुलंदी पर सितारा कीजिये

2122 2122 212 
अब  न  कोई   जंग   हारा  कीजिये ।।
अब  बुलन्दी  पर  सितारा   कीजिये ।।

चाहिए   गर    कामयाबी   इश्क़   में ।
रात   दिन   सूरत  निहारा    कीजिये ।।

चाँद  को  ला  दूं  जमी  पर आज ही ।
आप  मुझको  इक  इशारा  कीजिये ।।

बेखुदी   में  कह  दिया   होगा  कभी ।
बात  दिल   मे  मत  उतारा  कीजिये ।।

पालिये    उम्मीद   मत   सरकार  से ।
जो   मिले   उसमें  गुजारा  कीजिये ।।

ले    लिए   हैं   वोट    सारे    आपने ।
काम  भी   कुछ  तो  हमारा कीजिये ।।

अब  मुकर  जाते  हैं  अपने, देखकर ।
अब  खुदा  का  ही  सहारा  कीजिये ।।

दे   रहीं   हैं   कुछ    गवाही    झुर्रियां ।
ज़ुल्फ़   इतनी   मत  सँवारा  कीजिये ।।

गर   बुढापे   में  जवां    दिल   चाहिए ।
हुस्न  का  भी  इक   नज़ारा  कीजिये ।।

आपकी फितरत से भी वाकिफ हैं हम ।
शेखियाँ    यूँ   मत    बघारा   कीजिये ।।

हो   गया  है  इश्क़   तो  दिल  में   रहें ।
इस  तरह  तो  मत   किनारा  कीजिये ।।

         -- नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल - आशिकी रोज आजमाती है

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उसकी   खुशबू   तमाम  लाती है ।।
जो  हवा  घर से  उसके आती है ।।

आज मौसम है खुश गवार बहुत ।
बे  वफ़ा  तेरी   याद   आती.  है ।।

कितनी  मशहूर   हो  गई  शोहरत ।
नेक   नीयत   शबाब    लाती   है ।।

टूटकर.  मैं  भी  कशमकश  में  हूँ  ।
रात  उलझन  में  बीत   जाती  है ।।

ओढ़  लेती  बड़े   अदब  से   वो ।
जब  दुपट्टा   हवा   उड़ाती    है ।।

यूँ    तमन्ना    तमाम    क्या रक्खूँ  ।
ज़िन्दगी   रोज़   तोड़  जाती   है ।।

हम   भी  दीवानगी  से  हैं  गुजरे ।
वक्त   कैसा   हयात   लाती   है ।।

जुल्फ अपनी सियाह कर लेकिन ।
उम्र    रंगत    तेरी    बताती.   है ।।

इश्क  छिपता   नही   छिपाये   से ।
कुछ  निशानी  भी  बोल  जाती है।।

उम्र  कमसिन  जरा  सँभल के चलो।
आशिकी    रोज   आजमाती    है ।।

मत  करो   याद  इतनी  शिद्दत   से ।
आँख   से   नींद  रूठ   जाती   है ।।

          -- नवीन मणि त्रिपाठी