" एकात्म मानववाद और धर्म "
--नवीन मणि त्रिपाठी
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का कहना था कि भारत एक ऐसा देश है जो विश्वपटल पर अपनी सर्वश्रेष्ठ पहचान बनाने में पूर्ण सक्षम है । उनके द्वारा एकात्म मानववाद का विचार आज भी पूर्ण सामयिक है । पंडित जी के अनुसार किसी भी मनुष्य का शरीर मन बुद्धि और आत्मा यदि ये चारों अंग विकार रहित रहेंगे तभी सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है । मनुष्य जब कोई काँटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है अतः बुद्धि हाथ को सन्देश देती है फिर हाथ कांटा को निकलता है । मुख्य रूप से मनुष्य , शरीर, मन ,बुद्धि और आत्मा इन चारों को नियंत्रित करते हुए चारो के प्रति चिंतनशील रहता है ।यदि ये चारों ठीक होंगे तभी मनुष्य का सुखी रहना सम्भव हो पाता है । यह मानव की प्रकृति है । इसी प्रकृति को पण्डित जी ने एकात्म मानव वाद के रूप में समझा । उन्होंने भारतीय संस्कृति धर्म आदि को राष्ट्र के अंग के रूप में स्वीकार किया । धर्म और संस्कृति में कोई विकृति होगी तो राष्ट्र भी स्वस्थ नहीं रह सकता । अर्थात धर्म को राष्ट्र से अलग करके स्वस्थ राष्ट्र की कल्पना करना उचित नहीं होगा । उनका मानना था कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा. भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी। पण्डित जी का एकात्म मानव वाद का यह दर्शन पूर्ण वैज्ञानिकता को सजोये हुए है । यह सिद्धांत मार्क्स वाद लेनिन वाद साम्यवाद आदि से कहीं अधिक वैज्ञानिक आधार से युक्त एवम तर्क संगत है । आज देश की वर्तमान सरकार भी उनके बताए गए सिद्धांत का अनुसरण करती हुई प्रतीत होती है । अतः जनता की असन्तुष्टि पर काफी हद तक नियंत्रण देखा जा रहा है ।
देश मे वामपंथी विचारधाराओं ने धर्म को राष्ट्रीय विकास का अंग स्वीकार ही नही किया बल्कि धर्म निरपेक्षता पर ही जोर देतीं रहीं । धर्म निरपेक्ष होना राष्ट्र का गौरव माना जाने लगा जबकि पण्डित जी धर्म सापेक्ष राष्ट्र की परिकल्पना करके धर्म को जिस रूप में परिभाषित किया है वह आज एक राष्ट्र की प्रगति के लिए अमूल्य चिंतन के रूप में पहचाना जा रहा है । आज हम इस आलेख में धर्म की सूक्ष्मतम विवेचना की ओर आपको ले चल रहे हैं । सम्पूर्ण विवेचना 24 अप्रैल 1965 को पंडित जी के द्वारा दिये गए उस भाषण के अंश पर आधारित है जिसमे पंडित जी ने धर्म राज्य की व्यख्या की है । आइये हम इसे समझने के लिए भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के उस क्षण से आपको जोड़ते है जब भारतीय लोक तन्त्र की स्थापना हुई ।
देश आज़ाद होने के बाद एक ऐसे चौराहे पर खड़ा था जहां देश के अस्तित्व और प्रगति हेतु एक ऐसे मार्ग की तलाश थी जहाँ से देश उन्नति की नावगाथा लिख सके । देश के सामने दो विवादित मार्ग थे पहला मार्ग पूँजी वाद था और दूसरा मार्ग था समाज वाद । मजे की बात यह थी कि यह दोनों मार्ग खोजने वाले विद्वान विदेशी यूरोपियन थे । उनकी जो भी खोज थी वह उनकी परस्थिति और काल पर निर्भर थी । विदेशी संस्कृति से उतपन्न सिद्धांत भारत पर भी खरा उतरे यह आवश्यक नही था ।ऐसी स्थिति में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी स्पष्ट किया कि ऐसी कोई मजबूरी तो नही है कि हम विदेशी विचारधारा को मानने के लिए विवश हों । जब इन विचारधाराओं की बहस में कोई भारतीय तक शामिल नहीं है और न् ही वे विचारधाराएं भारतीय परिवेश में विकसित हुई हैं तो इन्हें देश पर क्यों थोपा जाए । पंडित जी का मानना था कि हमें अपने देश और दुनियां की जरूरत के हिसाब से अपने विचारों को विकसित करना चाहिए । किसी के विचारों के नकल से देश को सही दिशा नही मिल सकती है ।
एकात्म मानववाद जिसे अब एकात्म मानवदर्शन के रूप में मान लिया गया है । एक ऐसी विचार धारा जिसमे मानव कल्याण की वैज्ञानिक दृष्टि समाहित है । पं0 दीन दयाल उपाध्याय जिस एकात्म मानववाद की बात करते हैं वह एकात्म मानववाद निश्चय ही राष्ट्र को जोड़कर रखने में अत्यंत सहायक है । मैं ही जीतूंगा , मैं ही सबसे बड़ा हूँ , सब मेरे लिए ही हैं , यह भावनाएं अहंकार को जन्म देती हैं । बस यहीं से पूँजी वाद का जन्म होता है और यहीं से समाजवाद का भी जन्म होता है ।
वर्तमान समाजवाद अपने मूल स्वरूप से बिल्कुल अलग है । यह एक व्यक्तिवादी व्यवस्था ही है । समाजवाद कहता है कि मशीन रखने वाला किसी व्यक्ति मजदूर रखता है मजदूर को कुछ धन राशि वेतन के रूप में देता है शेष मुनाफे की अधिकांस धनराशि को स्वयं रख लेता है । ऐसा कहकर यह समाजवाद मजदूर ईर्ष्या जगाता है और कहता है कि तेरे ही सहारे ये मशीन वाले लोग कार से चलते हैं । मेहनत मजदूर करता है परंतु अकेला होने की वजह से वह कमजोर है । अगर सभी मजदूर मिल जाएं तो अपना हक प्राप्त कर लेंगे । समाजवाद की यह सोच मात्र ईर्ष्या और संघर्ष की भावना को ही पोषित करती हैं ।
साम्यवाद का दर्शन भी भारतीय संस्कृति से बिल्कुल मेल नही खाता साम्य वाद में मजदूरों की सत्ता होती है समाज की सत्ता ही नही होती है । जब मजदूर मिलकर एक साथ दिखता है तब भी वह मजदूर के रूप में कुछ नही कर पाता है तो फिर उससे कहा जाता है कि तुम अपनी सारी शक्ति हमे दो इस प्रकार मजदूर की स्वतंत्रता भी चली जाती है । अतः यहां भी यह व्यवस्था एक समूह के द्वारा तानाशाही का शिकार हो जाती है । साम्यवाद समाज की वास्तविक भावना का प्रतिनिधित्व करने में कामयाब नही हो पाता । पूर्णतया व्यक्तिवादी विचारधारा है अंततः व्यक्ति की स्वतंत्रता भी चली जाती है ।संघर्ष इसमें केंद्र बिंदु की तरह ही है ।
पूँजी वादी विचारधारा भी एक प्रकार से संघर्ष पर ही आधारित है । प्रतियोगिता इसका मुख्य आधार है सबल ही जीवित रहे इस सिद्धांत को पूंजीवाद संरक्षित करता है ,जबकि साम्यवादी प्रतियोगिता में नहीं बल्कि वर्ग संघर्ष में विश्वास रखते हैं । यहां भी वर्ग की प्रतियोगिता हो जाती है । अतः स्पष्ट होता है कि पश्चिम में पूर्णता पर विचार ही नही किया जाता है । सारा चिंतन ही टुकड़ो टुकड़ों में है । हमारी संस्कृति अपूर्णता को स्वीकार ही नही करती ।
पूँजी वाद का वास्तविक चेहरा व्यक्तिवाद के रूप में पहचाना जाता है । यूरोप में जो लोग व्यक्तिवाद के विरोधी थे उन्होंने व्यक्तिवाद को पूँजी वाद कहा । पूंजीवाद की वैचारिक मान्यता यह है कि मनुष्य तो मात्र एक व्यक्ति हो होता है । यह विचारधारा तो समाज के अस्तित्व को ही नहीं स्वीकार करती है । व्यक्ति की आज़ादी को ही मानव सुख का आधार मानती है । बाद में जब देखा गया कि आज़ाद व्यक्तियों ने अन्य कमजोर व्यक्तियों का शोषण प्रारम्भ कर दिया तो समाज वर्गों में विभाजित होने लगा । इसी बीच एक और महान विचारक कार्ल मार्क्स ने अपना मत प्रस्तुत किया कि मानव व्यक्ति नहीं बल्कि एक समाज है ।सामाजिक समता हेतु मनुष्य की स्वंत्रता पर अंकुश आवश्यक है । मानव केवल व्यक्ति है समाज नही और मानव केवल समाज है व्यक्ति नही इस तथ्य को लेकर यूरोप के विद्वान विचारकों में काफी वाद विवाद चलता रहा । यहीं से व्यक्ति वाद और समाज वाद नामक दो विचार धाराओं का विकास हुआ । ये दोनों विचार पूर्णतया भौतिक वादी ही हैं और दोनों विचार आध्यात्मिकता का निषेध करते हैं । पंडित दीन दयाल जी का मानना था कि मानव केवल भौतिक वादी नही हो सकता बल्कि मानव की आध्ययमिक आवश्यकताएं भी होती हैं अतः जब तक भौतिकता के साथ आध्यात्मिक विकास नहीं होगा तब तक मानवता का विकास सम्भव नही । पाश्चात्य विचारधाराएं मानव को व्यक्ति और समाज मे बाटने वाली होती हैं अतः इन्हें महत्व देना उचित नही होगा ।
पंडित जी कभी भी पाश्चात्य जगत के द्वारा निर्मित सिद्धांतो के अंधानुकरण के पक्षधर नहीं रहे । उनका मानना था कि प्रत्येक राष्ट्र की अपनी प्राकृतिक व भौगोलिक स्थिति होती है साथ ही सांस्कृतिक परिवेश में भी भिन्नताऐं पाई जाती हैं ।अतः जो सिद्धांत पश्चिमी देशों के द्वारा निर्मित किये गए वे सिद्धांत भारत के लिए भी उपयुक्त होंगे यह कदापि सम्भव नहीं है । बहुत से लोग स्वतन्त्रता को ही निरंकुशता मान लेते हैं । पश्चिमी सभ्यता से उपजा विचार है ,कि "समाज प्रकृति सृष्टि सब चीजें मेरे लिए हैं ," अर्थात व्यक्ति के लिए हैं । प्रकृति पर विजय प्राप्त करना उद्देश्य है ।मनुष्य के अतिरिक्त सभी जीवों को मार कर खाने की प्रवृत्ति इस लिए बढ़ जाती है क्यों कि उनके विचार में यह सब उनके (व्यक्ति)लिए हैं । मैं ही बड़ा हूँ इसलिये सारी चीजें मेरे लिए । यह पश्चिमी संस्कृति की सोच भारतीय सभ्यता के सर्वथा विपरीत है । भारतीय सोच कहती है कि संसार मे जो अन्य बस्तुएं दिखती हैं उनमें निश्चय ही मनुष्य बड़ा है परन्तु हमारी संस्कृति कहती है जो सबके लिए और सबकी सेवा करे वही बड़ा कहलाने का हक़ रखता है । पाश्चात्य सभ्यता प्रकृति पर विजय की बात करती है । एवरेस्ट पर चढ़ जाने को एवरेस्ट पर विजय समझा जाता है ।जब भारतीय सोच का व्यक्ति हिमालय पर जाता है तो उसके भाव मे वह हिमालय एक तपोभूमि का स्थान पाता है ।
यदि संसार मे देखा जाए तो मात्र समर्थ ही नही जीवित रहता बल्कि कमजोर व्यक्ति भी जीवित रहता है । एक ऐसा समाज जहां कमजोर व्यक्ति की भी रक्षा हो सके वह समाज एक सभ्य समाज की परिधि में आता ही है ।राज्य की स्थापना का उद्देश्य ही यही है कि दुर्बल व्यक्ति के हितों रक्षा हो सके ।
समर्थ के द्वारा कहीं दुर्बल को समाप्त न् कर दिया जाए इसलिए हम नियम और समाज को स्थापित करते हैं । अतः जीवन के समाज का आधार संघर्ष नही बल्कि सहयोग ही है । प्रकृति भी सहयोग के आधार पर ही चलती है । हम पौधों को कबर्न डाई आक्साइड देते है तो पौधे हमे आक्सीजन देते हैं । अतः वनस्पति और मनुष्य सदैव एक दुसरे के पूरक ही हैं । जहाँ पूरकता पैदा नहीं होती वहां आसुरी भाव होता है । सबको हटाकर मैं जीवित रहूँ यह परंपरा भेद उतपन्न करने की होती है । पश्चिमी सभ्यता में द्वैत का भाव सदैव विद्यमान रहता है । अब बाइबिल को ही देखिए । यहां भी भगवान और शैतान की कल्पना है और द्वैत विद्यमान है । इसी प्रकार डार्विन और मार्क्स की कल्पनाएं भी हैं । हमारी सभ्यता अद्वैत के साथ साथ अभेद्य भी है ।द्वैत में एकता उतपन्न करना लगभग असंभव सा है । विवाह में पति पत्नी दो होते हुए भी हमारे यहां एक हो जाते हैं , परंतु पश्चिम में विवाह एक समझौता मात्र है जब सम्बन्ध निभ जाए तब तक ठीक अन्यथा सम्बन्ध टूटना भी सम्भव है । जबकि हमारी मान्यताएं मात्र इसी जन्म से नही बल्कि अनंत जन्मों से पति पत्नी को एक मानने की होती हैं ।
पश्चिमी सभ्यता हमारी प्रकृति से मेल नही खाती ।हमने संघर्ष और दुर्गुणों को कभी आधार नहीँ माना परंतु स्पष्ट करना चाहूंगा कि हमने कभी भी अच्छाइयों की उपेक्षा भी नही की किसी भी सभ्यता में यदि कुछ हमारी प्रकृति से मेल खाया तो उसे स्वीकार भी किया ।
हमारी संस्कृति हमारी परंपराएं मानव को एकात्म मानती हैं । एकात्म अर्थात जिसे बाटना सम्भव नहीं । ऐसी इकाई जिसे बांटा ही न् जा सके एकात्म कहलाती है।समाज और व्यक्ति काफी घनिष्ठता के साथ जुड़े हैं जिसे अलग नही किया जा सकता है । मनुष्य व्यक्ति के रूप समाज का अभिन्न अंग है और व्यक्ति परिवार के बिना नहीं रह सकता है । परिवार अपने ग्राम शहर के बिना अधूरा अनुभव करेगा । इसी प्रकार ग्राम शहर से ऊपर देश व राष्ट्र की इकाई आती है। व्यक्ति सदैव इन्ही समुदाय का हिस्सा है । एकात्म मानव का सुख व्यक्ति व समाज मे विभाजित नही होता बल्कि एकात्म होता है ।
यदि हम भारतीय संस्कृति को अधिक गौर से देखें तो पाएंगे कि मानव केवल व्यक्ति या समाज के रूप में ही एकात्म नही है बल्कि वह इस संसार व प्रकृति का भी अविभाज्य अंग है । मानव यदि प्रकृति से कोई छेड़ छाड़ करेगा तो खामियाजा मानव को उठाना पड़ेगा । मनुष्य को प्रकृति के साथ सु आचरण।करना सीखना ही होगा ।
जो लोग प्रकृति पर विजय की बात करते हैं प्रकृति का अनियंत्रित उपभोग करते हैं उन्होंने सदैव मानवता के सम्मुख संकट को आमंत्रित किया है ।भारत आध्यात्मिक तत्व को मानवता का एक अटूट हिस्सा मानता है । यह अनुभूति का क्षेत्र है । भारत उस परमात्मा के किसी एक रूप या पूजा पद्धति का अनुयायी नही है बल्कि आध्यात्मिक उत्कर्ष के विभिन्न आयामों का यहां विकास हुआ है । यही कारण रहा है कि सभी प्राणियों में एक ही आत्मा का निवास जीव दया का भाव तथा अहिंसा आदि गुणों का यहां विकास हुआ । अध्यात्मिकता निश्चय ही एकात्मकता का अभिन्न अंग है । किसी भी विचारधारा में आध्यात्मिकता की उपेक्षा खतरनाक है ।
किसी भी मनुष्य में शरीर मन बुद्धि और आत्मा का होना आवश्यक है । यदि इसमें से कोई भी एक तत्व उपस्थित नही हो अथवा उचित सक्रियता न् हो तो अन्य का अस्तित्व भी खतरे में आ जाता है और इसके विपरीत यदि एक खराब स्थिति को ठीक कर दिया जाए तो अन्य तत्व भी स्वतः ऊर्जावान हो जाते हैं । अर्थात मनुष्य मन बुद्धि शरीर और आत्मा का सामुच्य ही है । अर्थात यहां भी हमे मनुष्य की प्रकृति से एकात्मकता का दर्शन होता है । यहां मन बुद्धि शरीर और आत्मा सिर्फ मनुष्य में ही नहीं बल्कि समाज मे भी पाया जाता है ।ठीक इसी प्रकार हमारे यहां व्यक्ति और समाज भी एक दूसरे के पूरक ही हैं । एक को मिटाकर दूसरे का विकास सम्भव ही नहीं है । सबको साथ में लेकर चलने से ही सच्चा विकास होगा । "सबका साथ और सबका विकास " का यह नारा भी एकात्मवाद के दर्शन पर ही आधारित है । अतः व्यक्ति और समाज दोनों साथ ही रहेंगे । इन दोनों से जो चीज निकल कर आई वह है पुरुषार्थ । धर्म अर्थ काम मोक्ष के रूप में चार पुरुषार्थ बने । ये पुरुषार्थ केवल व्यक्ति में ही नहीं वरन राष्ट्र में भी पाए जाते हैं ।
धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों पुरुषार्थ की कल्पना के मूल में व्यक्ति के विकास और समाज के हित का सम्पादन ही था । धर्म अर्थ और काम एक दूसरे के पूरक और पोषक हैं मनुष्य की प्रेरणा का स्रोत तथा उसके कार्यों का माप दण्ड मानकर चलना अधूरा होगा । फिर भी अर्थ और काम की सिद्धि का साधन का महत्वपूर्ण
आधार है ।
एकात्मक विचारधारा के अंतर्गत पंडित जी जिस धर्म की कल्पना करते हैं वह अद्भुद है । कई बार धर्म को मत या मजहब मानकर उसके गलत अर्थ लगाए गए । यह त्रुटि अंग्रेजी शब्द रिलीजन शब्द के अनुवाद से प्रारम्भ हुई । धर्म का वास्तविक अर्थ है ,- वे सनातन नियम जिनके आधार पर किसी सत्ता की धारणा हो और जिनका पालन करके व्यक्ति अभ्युदय और निः श्रेयस की प्राप्ति कर सके । धर्म के मूल तत्व सनातन हैं किन्तु उनका विवरण देश काल परिस्थिति के अनुसार परिवर्तनशील भी है । इस संक्रमणशील जगत में मात्र धर्म ही है जिसमे स्थायित्व लाने की शक्ति है । धर्म को ही नियन्ता माना गया है अतः प्रभुता भी उसी में ही निहित है ।
जैसा कि स्पष्ट है कि समाज केवल व्यक्तियों का समूह अथवा समुच्चय नहीं अपितु एक जीवंत सावयव सत्ता है । भूमि के प्रति मातृ भाव रखकर चलने वाले समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है । प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक प्रकृति होती है जो ऐतिहासिक अथवा भौगोलिक कारणों का परिणाम नहीं अपितु जन्मजात है । इसे चिति कहते हैं
मैकडूगल के अनुसार चिति किसी भी समूह की मूल प्रकृति होती है । वैसे भी चिति किसी समाज की वह प्रकृति है जो जन्मजात होती है चिति कभी ऐतिहासिक कारणों से नहीं बनती है । मनुष्य के व्यक्तित्व व आत्मा व चरित्र में अंतर होता है । व्यक्ति जीवन भर में जो भी कर्म करता है या जितने संस्कार उस में होते हैं या जो भी विचार आते हैं उन सब व्यक्ति पर एक संकलित परिणाम होता है । इस संकलित परिणाम से व्यक्तित्व का निर्माण होता है , परंतु आत्मा में कोई वस्तु जुड़ती नही है । ठीक इसी प्रकार राष्ट्र की संस्कृति में ऐतिहासिक कारणों तथा वातावरण से उतपन्न स्थिति के सामूहिक परिणामों से बहुत सी बातें जुड़ भी जाती हैं ।
समाज के संसर्ग से समाज के प्रयत्नों से समाज के इतिहास के परिणाम स्वरूप जिन तत्वों का वे निर्माण करते हैं और जिन्हें वे अच्छा और गौरव पूर्ण समझते हैं वे सब संस्कृति के अंतर्गत आ जाते हैं परंतु चिति के अंतर्गत नहीं आते हैं । चिति को लेकर तो प्रत्येक समाज पैदा होता है और समाज की संस्कृति दिशा को चिति ही निर्धारित करती है । अर्थात जो बस्तु चिति के अनुकूल होती है वह संस्कृति में सम्मिलित कर ली जाती है ।
इसी चिति से धर्म का निर्माण होता है ।
कौरवों और पांडवो में युद्ध हुआ जिसमें कौरव की पराजय और पांडव विजयी हुए । पांडवो की विजय को हमने धर्म कहा लेकिन कौरव को धर्म से नहीं जोड़ा गया ? राम रावण के युद्ध में विभीषण ने राजद्रोह किया परंतु उसके बाद भी लोग विभीषण को अच्छा कहते हैं ? जबकि विभीषण का कार्य और जयचन्द का कार्य दोनों मेल खाता है । दोनों ने भाई और राज्य का साथ छोड़ दिया । कृष्ण ने अपने मामा का ही वध किया परंतु उन्हें दोषी नही कहा गया । जबकि कंस को असुर कहा गया । इन सभी प्रश्नों का जबाब हमारे मन की प्रकृति या चिति ही है । चिति वह मापदण्ड है जिससे हर वस्तु को मान्य अथवा अमान्य की कसौटी पर रखा जाता है । यही चिति ही किसी राष्ट्र की आत्मा होती है । इसी आत्मा के आधार पर राष्ट्र खड़ा होता है और इसी चिति से राष्ट्र के प्रत्येक श्रेष्ठ व्यक्ति का आचरण भी निर्धारित होता है।
सर्वमान्य है कि राज्य का कोई न् कोई लक्ष्य होना चाहिए । प्रत्येक राज्य का अपना एक आदर्श होना आवश्यक है ।अतः सर्वोपरिता राज्य की न होकर आदर्श की होनी चाहिए । पहरेदार खजाने से बड़ा नही हो सकता । कोष की तुलना में कोष अध्यक्ष छोटा ही माना जायेगा ।राज्य राष्ट्र की रक्षा हेतु पैदा होता है । राष्ट्र का आदर्श अर्थात चिति । चिति गहन है । उसकी अभिव्यक्ति और व्यवहार के नियमों को ही उस राष्ट्र का धर्म कहते हैं । अतः यदि महत्ता देखी जाए तो धर्म ही वह सर्वाधिक महत्व पूर्ण तत्व है जिसके द्वारा एकात्म दर्शन की सहज कल्पना सम्भव है । धर्म मे ही प्राण है । धर्म गया मतलब प्राण गया । धर्म छोड़ने का सीधा अर्थ राष्ट्र से च्युत होना है । धर्म छोड़ने वाले का सबकुछ चला जाता है ।
धर्म का सम्बंध केवल मंदिर मस्जिद से नही है । उपासना किसी व्यक्ति धर्म का
एक अंग हो सकती है किन्तु धर्म तो व्यापक है ।मन्दिर मस्जिद लोगों में धर्माचरण की शिक्षा का प्रभावी माध्यम रहे हैं । जैसे कोई विद्यार्थी रोज स्कूल जाने के बाद भी अनपढ़ रह जाता है वैसे ही रोज़ मन्दिर मस्जिद जाने वाले लोग भी धर्म न् समझ पाए तो इसमें को आश्चर्य भी नही होगा । रिलीजन को को बहुत बार लोगों के द्वारा धर्म माना गया । अंग्रेजी अनुवाद के कारण हमारी जो बहुत सी हानिया हुई है उनमें एक बड़ी हानि यह भी है ।
हमने देखा कि जब से हम लोग रिलीजन शब्द को धर्म के पर्यायवाची शब्द के रूप में जानने लगे तब से धर्म और जीवन का अज्ञान तथा यूरोपीय जीवन का अधिकाधिक ज्ञान हमारे जीवन का विषय बन गया । फलतः रिलीजन के जितने सहचरी भाव होते हैं उन्हें उन्हें हमने धर्म पर आरोपित कर दिया । यदि यूरोप में रिलीजन के नाम पर अन्याय अत्याचार और युद्ध हुए तो हमारे यहां भी उसे धर्म के खाते में चढ़ा लिए गए । रिलीजन का अर्थ है मत पंथ मजहब यह सब एक धर्म नही है । धर्म तो व्यपक तत्व है वह जीवन के सभी पहलुओं से सम्बन्ध रखने वाला तत्व है । धर्म मे समाज की धारणा होती है ।यह धारणा करने वाली वस्तु ही धर्म है ।
धर्म के मूलभूत तत्व सनातन और सर्वव्यापी हैँ । उनका व्यवहार देश काल परिस्थिति के सापेक्ष होता है । मनुष्य को शरीर शरीर हेतु भोजन की आवश्यकता है यह नियम शाश्वत है परंतु व्यक्ति को कब कितना और कैसा भोजन करना चाहिए यह परिस्थिति सापेक्ष होता है । अतः नियम बनते समय उक्त तथ्यों का महत्व होता है । देश काल के आधार पर नियम में परिवर्तन भी होते हैं परिवर्तित नियम पालन योग्य होते हैं ।
यदि हम धर्म की कल्पना को आगे ले जाएं तो केवल राज्य और राष्ट्र का नही बल्कि मनुष्य की प्रकृति का विचार करना होगा अर्थात राष्ट्र का संविधान प्रकृतिक न्याय के प्रतिकूल नही होगा ।
ऐसे बहुत से व्यवहार हैं जिनकी नियमावली किसी विधि शास्त्र में नही मिलते परन्तु होते अवश्य हैं । वे नियम लिखित कानूनों से भी अधिक प्रभावी होते हैं । अपने माता पिता का आदर करना चाहिए यह किसी कानून में नहीं लिखा फिर भी समाज आदर करने के लिए आपको बाध्य करेगा । माता पिता का सम्मान न् करने वाले को कोई अच्छा इंसान नहीं कहता ।उन्हें बुरा माना जाता है । यदि ऐसा प्रश्न न्यायालय में भी आ जाये तो न्यायालय भी बच्चों को वयस्क होने तक माता पिता का सम्मान करने के लिए ही कहेगा ।इस प्रकार का विधान जो आधारभूत प्राकृतिक एवम आदिरूप है वही सब वस्तुओं और व्यवहार की नियमानुकूलता तथा वैधता निर्णायक है । इस विधान को ही हमारे यहां धर्म कहा गया है । आंतरिक नियम धर्म का पर्याय हो सकता है परंतु वह धर्म का पूरा भाव प्रकट करने मे असमर्थ है । धर्म की प्रभुता होने के कारण ही हमारे राज्य का आदर्श धर्म राज्य है । राजा धर्म की रक्षा करने के लिए होता है ।जब प्राचीन काल में राजा का अभषेक होता था तब वह खड़ा होकर कहता था अदण्डयो अस्मि ,!!!!अदण्डयो अस्मि , !!!!!अदण्डयो अस्मि !!!! अर्थात मुझे कोई दंड नही दे सकता । यह वही बात जो पश्चिम का राजा कहता है । राजा के यह कहने पर पुरोहित हाथ में पलास का दंड लेकर उसकी पीठ पर मारता था और कहता था धर्म दण्डयोसि !!!धर्म दण्डयोसि !!!! धर्म दंडयोसि !!! अर्थात तुम्हारे ऊपर भी दंड है और वह दण्ड धर्म देगा । राजा भागता था तथा वेदी की।परिक्रमा करता और पुरोहित उसकी पीठ पर दण्ड मारता जाता था । तीन चक्कर लगाने के बाद यह विधि समाप्त हो जाती थी । राजा को ज्ञात हो जाता था कि हमारे ऊपर भी दंड है और वह धर्म का दंड है ।
जनतंत्र में देखा जाए तो वहां जनता ही राजा है तो क्या जनता भी मनमानी कर सकती है ? यह प्रश्न लोग उठा सकते हैं परंतु सच यह है
कि जनता चाहे जो करे उसे अधिकार तो है परन्तु अधर्म नहीं कर सकती एक बार एक धर्म प्रचारक से लोग प्रश्न पूछ रहे थे । उनका कहना था ईश्वर सर्व शक्ति मान नहीं है ? ईश्वर अधर्म नही कर सकता है। यदि करेगा तो शक्तिमान नही रहेगा । अधर्म शक्ति के बजाय दुर्बलता का प्रतीक है । शक्ति मनमानी में नही बल्कि संयम में है । आतः सर्व शक्तिमान परमेश्वर सम्पूर्ण संयमी और सम्पूर्ण धर्म मय है । ईश्वर का जन्म हमेशा अधर्म के विनाश और धर्म की स्थापना हेतु होता है । ईश्वर सब कुछ करेगा परंतु अधर्म नही करेगा । अर्थात स्पष्ट है कि ईश्वर से भी बड़ा धर्म है। जहां भी धर्म राज्य स्थापित होगा वहां सहज रूप से एकात्म दर्शन होगा ।
धर्म राज्य का अर्थ थियोक्रेटिक स्टेट नहीं हो सकता । इसे अच्छी प्रकार समझना आवश्यक है । थियोक्रेटिक स्टेट का अर्थ होता है जहाँ किसी पंथ अथवा गुरु का राज्य होता है। एक ही पन्थ विशेष के लोगों के पास सभी अधिकार होता है परंतु अन्य पन्थ के लोगों के पास अधिकार नहीं होता है । उन्हें मात्र दोयम दर्जे की नागरिकता भर ही प्राप्त हो पाती है । रोमन साम्राज्य इसी आधार पर चलता था । खिलाफत के पीछे भी यही कल्पना थी । खलीफा के नाम पर ही दुनिया भर के मुसलमान बादशाह राज्य करते थे किन्तु यह खिलाफत प्रथम विश्व युद्ध के बाद समाप्त हो गई । अब उसे पुनः करने का प्रयत्न किया जा रहा है । पाकिस्तान् एक थियोक्रेटिक बना है । वे अपने को इस्लामी राज्य कहते हैं । वहां मुसलमानों को छोड़कर अन्य जो भी हैं वे सब दोयम दर्जे के नागरिक हैं। इसके अतिरिक्त इस्लामी शासन का कोई और रूप तो वहां नहीं दिखता है । कुरान मस्जिद रोज़ा ईद नमाज़ आदि जैसी वहां है वैसी ही हिंदुस्तान में भी है । अर्थात राज्य और मजहब को जोड़ने की आवश्यकता नहीं है इससे व्यक्ति का व्यक्ति का ईश्वर करने का सामर्थ्य नही बढ़ता बल्कि राज्य अपने कर्तव्यों से अवश्य च्युत हो जाता है । धर्म राज्य में यह नही होता । प्रत्येक को अपने सम्प्रदाय की पूर्ण स्वतंत्रता रहती है । धर्म राज्य व्यक्ति के विकास उसके सुख और शांति में सम्प्रदाय का स्थान स्वीकार करता है । राज्य का कर्तव्य है कि वह ऐसी अवस्थाएं पैदा करे जिसमे व्यक्ति अपने मतानुसार जीवन यापन कर सके । अपने मत की स्वतंत्रता से दूसरे के मत के प्रति सहिष्णुता अपने आप आती है ।
स्वतन्त्रता की भी अपनी सीमाएं व मर्यादाएं है । हमें मात्र उतनी ही स्वतन्त्रता हासिल है जहां तक किसी और कि स्वतंत्रता बाधित न् हो । जैसे ही मेरी स्वतन्त्रता में किसी प्रकार का संघर्ष उतपन्न होता है वहीं से हमारी स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है । इसी तरह प्रत्येक व्यक्ति के सम्प्रदाय की स्वतंत्रता है । किन्तु कोई मजहब वहीं तक स्वतन्त्र है जब तक कि कोई दूसरा मजहब कोई हस्तक्षेप नही करता । यदि कोई दूसरे सम्प्रदाय में हस्तक्षेप करता है तो निश्चय ही वह स्वतन्त्रता का दुरुपयोग कर रहा है ।इस प्रकार की मर्यादाएं हर स्थान पर रहेंगी ।धर्म के राज्य में मजहब की स्वतंत्रता है पर थियोक्रेटिक स्टेट में नही है । आजकल थियोक्रेटिक स्टेट के विरुद्ध सेक्युलर स्टेट शब्द का प्रयोग होता है । यह शब्द पश्चिमी सभ्यता से नकल करके लिया गया है । हमें इसकी आवश्यकता ही नही थी । इसके कुछ गलत अर्थ लगा लिए गए है । जैसे रिलीजन का अनुवाद धर्म किया गया उसी प्रकार सेक्युलर स्टेट का अनुवाद लोगों ने अधार्मिक राज्य के रूप में किया गया । कुछ लोगों ने कहा धर्महीन राज्य और कुछ लोगों ने उस शब्द को अच्छा करने का प्रयत्न किया तो उन्होंने धर्म निरपेक्ष राज्य का नाम दिया । परंतु ये सारे अनुवाद पूर्णतया गलत हैं क्यों कि राज्य तो धर्महीन हो ही नही सकता धर्म निरपेक्ष भी नही रह सकता ठीक उसी प्रकार जैसे अग्नि ताप निरपेक्ष नही रह सकता । राज्य का कार्य ही यह होता है कि धर्म की व्यवस्था रहे । समाज मे धर्म (ला आफ आर्डर ) रहे वह धर्मसे अलग कैसे रह सकता है । अतः धर्म निरपेक्ष राज्य का मतलब नियम हीन् राज्य होगा । जहाँ नियम ही नही है वहां राज्य का कोई अर्थ भी नही । अर्थात धर्म निरपेक्ष और और राज्य एक दूसरे के विरोधी ही हुए । राज्य तो धर्म राज्य ही हो सकता है दूसरा नही । दूसरे में तो मूल कर्तव्य की उपेक्षा होना तय है ।
कभी कभी यह बहस देखा जाता है कि विधान मंडल बड़ा है या न्याय पालिका बड़ी है । एक कहता है हम कानून बनाते हैं तो दूसरा कहता है हम व्यख्या करते हैं । वास्तव में ये दोनों बड़े नही होते बल्कि इन दोनों के ऊपर बैठा हुआ धर्म बड़ा होता है । विधायिका को धर्मानुसार कार्य करना होगा और न्याय पालिका को भी धर्मानुसार कार्य करना होगा । उसके अंदर इनकी मर्यादाएं होंगी । यहां सबसे बड़ा न् विधायिका को न् न्याय पालिका को और न् जनता को रखा गया है बल्कि धर्म इन सबसे बड़ा है । कोई व्यक्ति धर्म के विरुद्ध आचरण नही कर सकता है ।
द्वितीय विश्व युद्ध में जब हिटलर ने फ्रांस पर आक्रमण किया तो फ्रांस उसका सामना नही कर पाया । हिटलर की सेनाएं आगे बढ़ती चली गईं । उस फ्रांस के प्रधानमंत्री मार्शल पेतां ने आत्म समर्पण का निर्णय लिया । फ्रांस की जनता ने इसका समर्थन किया । किन्तु दिगाल भागकर लन्दन गया लन्दन ने दिगाल का समर्थन किया उसने कहा मैं इस समर्पण को स्वीकार नही करता फ्रांस स्वतन्त्र है और स्वतन्त्र रहेगा । वहां वैठ कर सरकार बनाई और पुनः फ्रांस स्वतन्त्र हुआ । अब यदि बहुमत का नियम ही धर्म मानकर चलें तो दिगाल को कभी ठीक नही कहा जा सकता । उसे लड़ने का अधिकार मात्र इस वजह से मिला क्योकि राष्ट्र बहुमत व जनता से बड़ा होता है । राष्ट्र का धर्म इन सबसे ऊपर है । उसने जिस तत्व से अधिकार प्राप्त किया वह थी फ्रांस की स्वतंत्रता ।स्वतन्त्रता प्रत्येक राष्ट्र का धर्म है ।
शासन कौन चलाएगा यह बहुमत से तय होता है परंतु सत्य क्या है यह कभी बहुमत से तय नही हो सकता । राजा कौन बनेगा यह बहुमत से तय होगा पर राजा क्या करेगा यह धर्म से तय होगा । हम सभी जानते हैं कि अमेरिका जैसा देश जहाँ प्रजातन्त्र का ही बोलबाला रहा है वहां अब्राहम लिंकन ने गलत जनमत को स्वीकार नहीं किया । लिंकन से जब दक्षिण के राज्यों ने कहा कि हम अलग हो जाते हैं क्यों कि वहां दास प्रथा को समाप्त किया गया था । उस वक्त लिंकन ने लोगों से कहा "यह आपको जनतांत्रिक अधिकार है कि आप अलग हो जाएं " । लिंकन ने लड़ाई लड़ी और उन्हें अलग नहीं होने दिया । दास प्रथा को भी नहीं चलने दिया । यह कभी नहीं कहा कि यदि आप आंशिक दास प्रथा मान लेंगे तो समझौता कर लेंगे । आधा तेरा आधा मेरा वाली नीति कभी नही चली । उन्होंने कहा कि अमेरिका की जो परंपरा है यहां का जो धर्म है प्रकृति है जिस आधार पर राष्ट्र निर्माण का प्रयत्न किया जा रहा है दास प्रथा उसके प्रतिकूल है इसलिए दास प्रथा नही रहेगी । जब लोगों ने कहा हम अलग होते हैं तो उन्होंने कहा तुम अलग भी नहीं होने पाओगे । इस पर वहां गृह युद्ध हुआ परंतु लिंकन ने अधर्म के साथ समझौता नही किया ।
पुराने हिन्दू विवाह में पति पत्नी का सम्बंध उनकी इच्छा पर निर्भर नही करता । एक क्या यदि दोनों भी राजी हो जाएं तो भी तलाक नही दे सकते । उनका आचरण स्वेच्छा से नही धर्म से नियंत्रित होता है । इसी प्रकार राष्ट्र से भी नाता होना चाहिये । कश्मीर के लोग कहें कि हम अलग होते हैं तो यह धर्म के प्रतिकूल होगा । यदि पूरे देश के लोग धर्म के खिलाफ बात करें और तो वह सत्य नही हो सकती परंतु यदि एक व्यक्ति अपनी बात रखे और वह बात धर्मानुसार होगी तो वही व्यक्ति सत्य होगा । क्यों कि सत्य हमेशा धर्म के साथ होता है । उसी में से किसी व्यक्ति को धर्माचरण का ,धर्म के अनुसार कार्य करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है । हम अच्छी तरह समझ ले कि बहुमत में या जनता में धर्म नही है । धर्म शांत है । इसलिए प्रजातन्त्र की व्यख्या में जनता का शासन ही पर्याप्त नहीं यह शासन जनता के हित में भी आवश्यक है । जनता के हित का निर्णय धर्म करता है ।जन राज्य जब धर्म राज्य की भूमिका में नहीं होगा तब तक वास्तविक जनतंत्र व प्रजातन्त्र स्थापित ही नही हो सकता है । बिना स्वतन्त्रता व धर्म के धर्म राज्य का अस्तित्व ही नही सम्भव है । इस प्रकार एकात्म मानव दर्शन में धर्म एक अति महत्वपूर्ण कड़ी है।
नवीन मणि त्रिपाठी
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( आलेख वर्ष 2017 में अक्टूबर अंक में भाषा यूनिट हिंदी निदेशालय मानव संसाधन मंत्रालय भारत सरकार की भाषा पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है )