तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

रविवार, 10 फ़रवरी 2019

सच पे लटका हुआ खंज़र है कई सदियों से

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सच  पे  लटका  हुआ ख़ंजर  है  कई सदियों से ।
कैसे   ज़िन्दा  ये  सुख़नवर  है  कई  सदियों  से ।।

लूट   जाते    हैं  यहाँ  देश   को    कुर्सी   वाले ।
देश  का  ये  ही  मुक़द्दर  है  कई   सदियों  से ।।

क्या   बताएंगे   मियाँ  आप   तरक्क़ी  मुझको ।
शह्र  में  भूख  का  मंजर  है  कई  सदियों  से ।।

आप  भी  ढूढ़  नहीं  पाए  ख़ुदा  की  रहमत  ।
आपके  साथ  तो  रहबर  है  कई  सदियों से ।।

दौलतें  हो   गईं  लिल्लाह   न  जानें   कितनीं ।
घर सभी  को  न मयस्सर है  कई  सदियों से ।।

बढ़ न पाया है मुहब्बत का शजर आज तलक ।
ये  जमीं  देखिए   बंजर  है  कई  सदियों.  से ।।

ऐ मुसाफ़िर  तू जरा  सोच  समझकर  चलना ।
अम्न  की  राह  में पत्थर  है कई  सदियों से ।।

दाम  उनका  भी   लगाते   हैं  खरीदार  यहाँ ।
जिनका ईमान  तो  कट्टर है  कई सदियों से ।।

पीते   हैं   लोग  यहाँ   ज़ह्र  भी  मज़बूरी.  में ।
ज़िंदगी .मौत .से  बद्तर  है  कई सदियों  से ।।

बाद मरने के उन्हें  मिल सकी  है जन्नत क्या ?
प्रश्न  यह  भी  तो  निरुत्तर है कई सदियों  से ।।

ख़ास किरदार से हासिल तो करें कुछ  साहब ।
दास्तानों  में   सिकन्दर . है  कई  सदियों   से ।।

      --डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

छलके जो उनकी आंख से जज़्बात ख़ुद ब ख़ुद

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छलके जो उनकी आंख से जज़्बात ख़ुद ब ख़ुद ।
आए  मेरी  ज़ुबाँ   पे   सवालात  ख़ुद  ब   ख़ुद ।।

किस्मत    खुदा   ने   ऐसी   बनाई  है   दोस्तों ।
मिलती  हमें  गमों  की  ये सौगात ख़ुद ब ख़ुद ।।

चर्चा   है  शह्र  भर में   इसी  बात  का  सनम ।
बाँटी  है तूने  इश्क़  की  ख़ैरात  ख़ुद  ब  ख़ुद ।।

मेहनत पे कुछभरोसा होऔर हो नियत भी साफ़।
बढ़ जाएगी  तुम्हारी भी  औक़ात  ख़ुद  ब ख़ुद ।।

दहशत   भरी  घुटन   से  ये  अहसास  हो  रहा ।
बदलेगी  कुछ  तो सूरते   हालात  ख़ुद  ब ख़ुद ।।

मुद्दत  से  इस  तरह  से  मुझे  देखते  हो  क्यूँ ।
होने लगे न  प्यार  की बरसात  ख़ुद  ब  खुद ।।

इक  दिन  तुम्हारे  हुस्न  का  दीदार  क्या  हुआ ।
अब  तक  हैं क़ैद  ज़ेहन में लम्हात ख़ुद ब ख़ुद ।।

कुछ तो असर  हुआ  है  मेरी  चाहतों  का  यार ।
करने  लगे  वो  मुझसे  मुलाकात  खुद ब  खुद ।।

इन  ख़्वाहिशों   के दौर  में  थोड़ा  तो सब्र  कर ।
आएगी  तेरे  हक़  में  कोई  रात  ख़ुद  ब  ख़ुद ।।

        --डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
            मौलिक अप्रकाशित

जलता चराग हूँ मैं हवाएं मुझे न दो

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इतनी  मेरे  करम  की  सजाएं   मुझे   न   दो ।
जलता    चराग   हूँ  मैं   हवाएं  मुझे   न  दो ।।

कर दे कहीं न  ख़ाक मुझे तिश्नगी की आग।
हो   दूर    मैकदा   ये   दुआएं   मुझे   न  दो ।।

जीना मुहाल कर दे यहां खुशबुओं का  दौर ।
घुट जाए  मेरा  दम  वो  फ़जाएँ  मुझे  न दो ।।

यूँ  ही तमाम  फर्ज  अधूरे  हैं  अब  तलक ।
सर  पर अभी  से और  बलाएँ  मुझे न दो ।।

पूछा  करो  गुनाह  कभी  अपनी  रूह  से ।
गर   बेकसूर   हूँ  तो  सजाएं   मुझे  न  दो ।।

इतना भी कम नहीं कि तग़ाफ़ुल में जी रहा ।
यूँ महफिलों में अपनी जफाएँ मुझे न दो ।।

कर लोगे तुम वसूल  मेरे जिस्म  से भी सूद ।
ख़ैरात  कह  के  और  वफ़ाएँ  मुझे  न  दो ।।

कुछ  तो शरारतें थीं तुम्हारी अदा की  यार ।
मुज़रिम बना के सारी  खताएँ  मुझे  न दो ।।

गर बेसबब  ही  रूठ के  जाना  तुम्हें  है  तो ।
हर  बार  दूर  जा  के  सदाएं   मुझे   न  दो ।।

खुश हूँ मैं आज हिज्र के भी दरमियाँ  बहुत ।
बीमारे   ग़म  की  यार  दवाएं   मुझे  न  दो ।।

               डॉ नवीन मणि त्रिपाठी 
                मौलिक अप्रकाशित

क़ज़ा के वास्ते ये

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क़ज़ा  के  वास्ते  ये  इंतिज़ाम  किसका  है ।
तेरे   दयार   में  जीना   हराम  किसका  है ।।

खुशी  अदू  को  बहुत  है  जरा  पता  कीजै ।
बड़े  सलीके  से  आया  सलाम किसका  है ।।

दिखे  हैं  रिन्द  बहुत  तिश्नगी के साथ वहाँ ।
कोई  बताए  गली  में  मुकाम  किसका  है ।।

जो  बेचता   था  सरे  आम  जिंदगी  अपनी ।
खबर तो कर वो अभीतक गुलाम किसका है।।

वो  पूछ  बैठे  हमीं  से  यूँ  अजनबी   बनकर ।
के उनके हुस्न पे लिक्खा कलाम किसका है ।।

यही  सवाल  है साकी  से  आज महफ़िल में ।
छलक  गया  जो सरे बज़्म जाम किसका है ।।

फ़ना  हुए  जो वतन  पर  वो  नाम भूल  गए ।
तुम्हारे मुल्क़ में अब  एहतराम  किसका  है ।।

ग़रीब  आज  भी भूखा मिला है फिर मुझको ।
यहां  फ़िज़ूल  का ये  ताम-झाम किसका  है ।।

        -डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

कोई रिश्ता पुराना चल रहा है

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अभी  तक आना जाना चल रहा है ।
कोई  रिश्ता  पुराना  चल  रहा  है ।।

सुना  है  शह्र   की  चर्चा  में  आगे ।
तुम्हारा ही  फ़साना  चल  रहा  है ।।

इधर  दिल पर लगी  है चोट  गहरी ।
उधर  तो  मुस्कुराना  चल  रहा  है ।।

कहीं तरसी  जमीं  है आब के बिन ।
कहीं  मौसम  सुहाना  चल  रहा है ।।

तुझे  बख़्शा  खुदा  ने  हुस्न  इतना ।
तेरे   पीछे  ज़माना  चल   रहा  है ।।

दिया  था  जो  वसीयत में तुम्हें क्या ।
अभी  तक वह  खज़ाना  चल रहा है ।।

तुम्हारे     मैक़दे    में    देखता   हूँ ।
बहुत  पीना  पिलाना  चल  रहा है ।।

ग़ज़ल को गुनगुनाने की थी हसरत ।
तसव्वुर  में   तराना  चल   रहा   है ।।

यूँ   उसकी  शायरी  पे  जाइये  मत । 
वहाँ  मक़सद  रिझाना  चल  रहा  है ।।

अरूज़-ओ-फ़न से अब डरना है कैसा।
तुम्हारे   साथ   दाना  चल  रहा   है ।।

शराफ़त  बिक  रही बाज़ार  में अब ।
शरीफ़ों  का   बयाना  चल  रहा  है ।।

       डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

गर लुटे सारा खज़ाना चुप रहो

ग़ज़ल 
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आज  उनका  है ज़माना  चुप रहो ।
गर  लुटे  सारा  खज़ाना  चुप रहो ।।

क्या  दिया है पांच  वर्षों  में   मुझे ।
मांगते  हो  मेहनताना  चुप  रहो ।।

रोटियों   के  चंद  टुकड़े  डालकर ।
मेरी  गैरत  आजमाना  चुप   रहो ।।

मंदिरों मस्ज़िद  से  उनका  वास्ता ।
हरकतें  हैं  वहिसियाना  चुप  रहों ।।

लुट गया जुमलों पे सारा मुल्क जब ।
फिर नये  सपने दिखाना चुप रहो ।।

दांव  तो  अच्छे  चले थे  जीत  के ।
हार पर अब तिलमिलाना चुप रहो ।।

दी  गई  नादान  को बन्दूक  जब ।
बन  गया खुद ही निशाना चुप रहो ।।

हम तुम्हारी पढ़ चुके फ़ितरत मियाँ ।
अब  मुझे  अपना  बनाना  चुप रहो ।।

हक़  हमारा  छीन  कर  तुम  ले गए ।
और अब हमको लुभाना चुप रहो ।।

हम गरीबों  का  उड़ाया  है मज़ाक ।
हाले दिल  पर मुस्कुराना चुप रहो ।।

इन्तकामी   हौसला   मेरा  भी   है ।
धूल  तुमको  है  चटाना  चुप  रहो ।।

       -- डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी 
         मौलिक अप्रकाशित

शायद वह दीवानी है

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शायद    वह    दीवानी   है ।
लगती   जो  अनजानी   है ।।

दिलवर से मिलना है क्या ।
चाल   बड़ी   मस्तानी  है ।।

इश्क़  हुआ है क्या  उसको ।
आँखों    में   तो   पानी  है ।।

खोए    खोए    रहते    हो ।
यह   भी   इक  नादानी  है ।।

शमअ पे  तो परवानों  को।
हँसकर  जान  गवानी  है।।

उंगली उस पर खूब उठी ।
रिश्ता  क्या  जिस्मानी  है ।।

चर्चा   जोरों  पर  उसकी ।
कैसी  अजब  जवानी  है ।।

जिस पर नज़रें उनकी हैं ।
हुस्न   कोई   नूरानी   है ।।

दर्दो   ग़म    में   जीते  तुम ।
कुछ  तो पास निशानी  है ।।

जाते हो जब महफ़िल से ।
छा   जाती    वीरानी   है ।।

कसमें  खाना छोड़ो जी ।
तुमको कहाँ निभानी है ।।

चेहरा पढ़ कर  कहता  हूँ ।
लम्बी   कोई  कहानी   है ।।

ज़िस्म के पिजरे से इक़ दिन।
चिड़िया तो उड़ जानी है ।।

        डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

सुनाता ही रहा मुझको मुहब्बत की ग़ज़ल कोई

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तरन्नुम बन  ज़ुबाँ  से  जब  कभी  निकली  ग़ज़ल  कोई ।
सुनाता  ही   रहा   मुझको  मुहब्बत   की  ग़ज़ल   कोई ।।

बहुत   चर्चे  में  है  वो  आजकल   मफ़हूम  को  लेकर ।
जवां   होने   लगी  फिर  से  पुरानी  सी  ग़ज़ल  कोई ।।

कभी   तो   मुस्कुराती   है   कभी   ग़मगीन   होती    है  ।
हर  इक इंसान  को  बेशक़ असर करती ग़ज़ल कोई ।।

तुम्हें    देखा  जो  मैंने  और  बाकी  शेर   कह  डाले ।
हुई   है   बाद   मुद्दत    के   यहाँ    पूरी    ग़ज़ल  कोई ।। 

सुना   देने   की  बेचैनी   दिखी   है   उसके   चेहरे   पर ।
किसी  की  याद  में  जो  रात  भर लिक्खी ग़ज़ल कोई ।।

हजारों  लफ्ज़  भी कमतर लगे क्या क्या लिखूँ तुम पर ।
तुम्हारे   हुस्न   की   तारीफ़  में   बहकी   ग़ज़ल   कोई ।।

यहाँ  दीवानगी  की  हद  से   गुज़रा  है  ज़माना   तब ।
हमारे  साज़  पर  जब  जब  तेरी  सजती ग़ज़ल कोई ।।

अरुजी  से   कहा   मैंने  कवाफी बह्र   से  पहले ।
जिग़र  का  खून  भी लगता है तब ढ़लती ग़ज़ल कोई ।।

         डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
         मौलिक अप्रकाशित

महफ़िले इश्क़ में अब हुस्न को सज़दा होगा

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पूछ   मुझसे  न  सरे  बज़्म  यहाँ  क्या   होग़ा । 
महफ़िले इश्क़ में अब हुस्न को सज़दा होगा ।।

बाद  मुद्दत  के  दिखा  चाँद  ज़मीं  पर .कोई ।
आप   गुजरेंगे  गली  से  तो  ये  चर्चा  होगा ।।

वो जो बेचैन सा दिखता था यहां कुछ दिन से ।
ज़ह्न  में   उसके  तेरा  अक्स  ही उभरा  होगा।।

रोशनी सी जो दरीचे  से  नज़र आती  है ।
तज्रिबा कहता  है  वो चाँद का टुकड़ा होगा ।।

जानता होगा तेरे हुस्न की फितरत वो सनम ।
हाल  रह  रह  के  कई बार  जो .पूछा  होगा ।।

हिचकियाँ  याद की गहराइयों से  वाक़िफ़ थीं ।
हो न हो उसने  मुझे  दिल  से  पुकारा  होगा ।।

मेरे आने  की  खबर  पा  के यकीनन  उसने ।
गेसुओं  को   तो  सलीके  से सँवारा होगा ।।

वक्त करता ही नहीं रहम  किसी  पर सुन ले ।
गर  ढला  हुस्न  जरा  सोच  तेरा  क्या होगा ।।

भूल   पाएंगे  वफाओं   को  भला  वो   कैसे ।
जिक्र  उनसे  तो  मेरा  शह्र .भी करता होगा ।।

मेरे  दिल  पे  ही  न   इल्ज़ाम .लगाया .जाए ।
कुछ तो नजरों से  किया  उसने इशारा होगा ।।

        डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी

बहुत से लोग बेघर हो गए हैं

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बहुत  से  लोग  बेघर   हो  गए  हैं ।
सुना   हालात  बदतर  हो  गए  हैं ।।

मुहब्बत उग नहीं सकती यहां पर ।
हमारे   खेत  बंजर   हो  गए   हैं ।।

पता हनुमान  की  है  जात जिनको।
सियासत  के  सिकन्दर हो गए हैं ।।

यहां  हर  शख्स   दंगाई   है  यारो ।
सभी के  पास  ख़ंजर  हो  गए  हैं ।।

सलीका ही नहीं चलने का जिनको ।
वही  भारत के  रहबर  हो गए  हैं ।।

लुटेरे  मुल्क़   में  बेख़ौफ़  हैं   अब ।
बदन पर सब के खद्दर  हो  गए हैं ।।

मेरा धन  लूट कर देते जो तुमको ।
वही  हाकिम  मुकर्रर  हो   गए  हैं ।।

करप्शन   की  सुनामी  देखिए  तो ।
नदी   नाले   समंदर   हो   गए  हैं ।।

कलम  यूँ  ही उगलती आग कब है ।
मुझे  भी  गम  मयस्सर  हो  गए हैं ।।

अदालत में  तो उसकी  हार तय है ।
तुम्हारे  साथ अफ़सर  हो  गए  हैं ।।

       डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी 
      मौलिक अप्रकाशित

आपका जब से मेरे दिल मे ठिकाना बन गया

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आपका जब से मेरे दिल में ठिकाना बन गया ।
देखिए अंदाज  भी कुछ शायराना बन गया ।।

है जमीं की तिश्नगी का अब्र को अहसास कुछ ।
अब विसाले यार का मौसम सुहाना बन गया ।।

आरिजे गुल के चमन से जब चला तीरे नज़र ।
बेख़ता था दिल मेरा फिर भी निशाना बन गया ।।

उसको देखा है बदलते रंग गिरगिट की तरह ।
आदमी को देखिए कितना सयाना बन गया ।।

इश्क़ छुपता ही नहीं होने लगी सबको ख़बर ।
देखते ही देखते दुश्मन ज़माना बन बन गया ।।

कर दिया जिनका मैं चर्चा हुस्न की तारीफ़ में ।
उनके कानों तक न पहुँचाऔर फ़साना बन गया।।

बेसबब ही नफ़रतें बोई गईं होंगी यहां ।
फिर कोई शायर नगर में सूफियाना बन गया ।।

कुछ ज़रूरत आपकी थी कुछ ज़रूरत थी मेरी ।
उम्र की दहलीज़ पर रिश्ता घराना बन गया ।।

यूँ तो मैंने कर लिया था जाम से तौबा मगर ।
जब तुम्हें देखा तो पीने का बहाना बन गया ।।

आँख पर छाई अना और थी अदा बहकी हुई ।
आपका लहजा सनम जब क़ातिलाना बन गया ।।

नफरतों के दौर में फेंके गए पत्थर बहुत ।
जोड़ कर मेरा भी यारो आशियाना बन गया ।।

        ---डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी
              मौलिक अप्रकाशित

कैसे कह दूं हुआ हादसा ही नहीं

कैसे  कह  दूं   हुआ   हादसा   ही  नहीं ।
दिल जो टूटा अभी  तक  जुड़ा  ही नहीं।।

तब्सिरा   मत   करें   मेरे   हालात  पर ।
हाले दिल आपको जब  पता  ही नहीं ।। 

रात  भर  बादलों  में  वो  छुपता  रहा ।
मत कहो चाँद था कुछ ख़फ़ा ही नहीं ।।

आप समझेंगे  क्या मेरे  जज्बात  को ।
आपसे  जब  ये   पर्दा  हटा  ही  नहीं ।।

मौत भी मुँह  चुराकर गुज़र  जाती  है ।
मुफ़लिसी  में   कोई  पूछता  ही  नहीं।।

कह  दिया  आपने  बेवफा  जब  मुझे ।
और कहने को कुछ  भी बचा ही नहीं ।।

होश  ही  उड़  गये  हुस्न  को  देखकर ।
क्या  हुआ  तेरा  ज़ादू  चला  ही  नहीं ।। 

हम कदम  दर  कदम यूँ ही  बढ़ते  रहे ।
फ़ासला अब तलक कुछ घटा ही नहीं ।।

इश्क़  में  कोई   उलझा  रहा  आपके ।
आप सुलझा सके  मसअला  ही नहीं ।।

जल गया ये चमन रफ़्ता रफ़्ता सनम ।
पर धुआँ  देखिए  कुछ उठा ही नहीं ।।

बात करती  असर  फैसले  के  लिए ।
आप ने मुझको शायद सुना ही नहीं ।।

        -- डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी

नए हालात पढ़ पाए नहीं जय

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नए  हालात  पढ़ पाए  नहीं  क्या ।
अभी तुम होश में आए नहीं क्या ।।

उठीं  हैं  उगलियां  इंसाफ ख़ातिर ।
तुम्हारे  ख़ाब  मुरझाए नहीं  क्या ।।

सुना  उन्नीस  में  तुम जा  रहे  हो ।
तुम्हें सब लोग समझाए नहीं क्या ।।

किये थे  पास तुमने जो  विधेयक ।
तुम्हारे  काम  वो आए  नहीं क्या ।।

जला सकती है साहब आह  मेरी ।
कहीं  तालाब खुदवाए नहीं क्या ।।

है  टेबल थप थपाना  याद मुझको ।
अभी तक आप शरमाए नहीं क्या ।।

यूँ  हक़  का  द्रौपदी सा चीर खींचे ।
तरस संसद में कुछ खाये नहीं क्या।।

दुशाशन  की  अभी  है  जांघ  टूटी ।
उन्हें  अंजाम दिखलाए  नहीं क्या ।।

यहां  चाणक्य  के  बंशज  बहुत हैं ।
वो मट्ठा जड़ में डलवाये नहीं क्या ।।

मिटाए  जा  रहे  सदियों से हम तो ।
हमें  तुम  भी मिटा  पाए नहीं क्या ।।

       -- डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी 
            मौलिक अप्रकाशित

मेरी महफ़िल में चाँद शब था

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बाद   मुद्दत    खुला   मुक़द्दर   था ।
मेरी महफ़िल में चाँद शब भर  था ।।

देख  दरिया के  वस्ल  की चाहत ।।
कितना  प्यासा  कोई  समंदर  था ।।

जीत कर  ले गया जो  मेरा  दिल।
हौसला वह  कहाँ  से कमतर  था ।।

दर्द   को  जब   छुपा  लिया  मैने ।
कितना  हैराँ  मेरा  सितमगर था ।।

अश्क़ आंखों में  देखकर  उनके ।
सूना  सूना  सा आज  मंजर  था ।।

जंग   इंसाफ   के  लिए  थी  वो ।
कब ज़माने  से  मौत का डर  था ।।

वो भी  पहचान  कर गए  खारिज़ ।
जिनके दिल में कभी मेरा घर था ।।

क्यों कहूँ दुश्मनों को अब क़ातिल ।
दोस्त के  हाथ मे  ही  ख़ंजर  था ।।

मिल गयी  है  उसे  जमानत  फिर ।
साफ इल्ज़ाम जिसके सर पर था ।।

यूँ  ही जज़्बात  आ   गए   लब   तक ।
कह गये जो भी दिल के अंदर था ।।
       --डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी
          मौलिक अप्रकाशित

क्यों गिरा आंखों से पानी जानते हो

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खेल क्या तुम भी सियासी जानते हो ।
कौन कितना है मदारी जानते हो ।।

फैसला ही जब पलट कर चल दिये तुम।।
फिर मिली कैसी निशानी जानते हो।।

हो रहा  है देश का सौदा कहीं  पर ।
खा  रहे  कितने  दलाली  जानते  हो।।

मसअले पर था ज़रूरी मशविरा भी ।
तुम  हमारी  शादमानी  जानते हो।।

दांव पर  बस  दांव  लगते  जा रहे हैं ।
हो गयी ख़्वाहिश जुआरी जानते हो।।

लोग हैराँ  हो  रहे  हैं  देखकर यह ।
तुम सितम की  तर्जुमानी  जानते हो।।

झपकियों पर क्यूँ उठी हैं उंगलियां ये ।
रात  कैसे   है  गुज़ारी जानते  हो।।

हाले दिल बस पूछते हो बारहा तुम ।
क्यों गिरा आंखों से पानी जानते हो ।।

चन्द उम्मीदों की ख़ातिर सांस जिंदा ।
यार तुम  ये  बेक़रारी  जानते   हो ।

मैं अदा कैसे  करूँगा  कर्ज   कोई।
बेटियां  घर  में  सयानी जानते हो।।

वक्त पर परखा  गया वह आदमी जब ।
सारा जुमला  है  चुनावी जानते हो ।।

        -- डॉ नवीन मणि त्रिपाठी 
           मौलिक अप्रकाशित

गिला करूँ मैं कहाँ तक यहां ज़माने से

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हर एक शख्स को मतलब है बस ख़ज़ाने से ।
गिला  करूँ  मैं  कहाँ  तक  यहां  ज़माने से ।।

कलेजा अम्नो  सुकूँ  का  निकाल  लेंगे  वो ।
उन्हें   है  वक्त  कहाँ  बस्तियां  जलाने   से ।।

न  पूछ  हमसे  अभी  जिंदगी  के  अफसाने ।
कटी  है   उम्र   यहां   सिसकियां  दबाने  से ।

मैं  अपने  दर्द  को बेशक़  छुपा के  रक्खूँगा ।
मिले   जो   चैन   तुझे    मेरे  मुस्कुराने   से ।।

हमारे  हक़  पे न  हमला करो  यहां साहब ।
चलेगा  मुल्क़  नहीं  इस  तरह  चलाने  से ।।

वो रूठते हैं तो कुछ और आना जाना रख ।
बनेग़ा   यार  कोई   सिलसिले  बनाने  से ।।

बड़ें यकीन से कहकर  गया है फिर कोई ।
खुदा   मिलेंगे  तुझे   दूरियां   मिटाने  से ।।

भरम   बनाए  रखें   दोस्ती  का  दुनिया में ।
ये  रिश्ते  टूट  न  जाएं   यूँ   आजमाने  से ।। 

उसे पता है हवाओं का रुख  किधर  है अब ।
बुझेगी  आग  यहां  आग  फिर  लगाने  से ।।

ये आंख कुछ तो बताती हैआपकी फ़ितरत ।
छुपा   है    दर्द  कहाँ  आपके   छुपाने   से ।।

अजीब  दौर  है  इंशानियत  नहीं  दिखती ।
ज़मीर   बेच  रहे   लोग   फ़िर  बहाने  से ।।
       
       -- नवीन मणि त्रिपाठी

धुँआ रफ़्ता रफ़्ता है घर से उठा कुछ

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दिया  आप   ने  था  हमें   जो   सिला  कुछ । 
 बड़ा   फैसला   हमको   लेना  पड़ा  कुछ ।।

कहा किसने अब तक नहीं है  जला  कुछ ।
धुंआ  रफ़्ता  रफ़्ता  है  घर  से  उठा कुछ ।।

बहुत  हो  चुकी  अब  यहाँ  जुमले  बाजी ।
तुम्हारे  मुख़ालिफ़   चली   है  हवा  कुछ ।।

बहुत  दिन  से  ख़ामोश  दिखता है मंजर ।
कई   दिल   हैं  टूटे  हुआ   हादसा  कुछ ।।

कदम मंजिलों की  तरफ  बढ़  गए  जब ।
तो अब पीछे मुड़कर है क्या देखना कुछ।।

मेरा   ऐब    सबको   बताने    से   पहले ।
जरा   देखिए   आप  भी  आइना   कुछ।।

मेरे   कत्ल  पर   तो    उँगलियाँ   उठेंगी ।
करें   इत्तला  सबको  मेरी   ख़ता  कुछ ।।

करेंगे यकीं  कब  तलक लोग  तुम पर ।
मिला  ज़ख़्म तुमसे  कई  मर्तबा  कुछ ।।

ज़माने की नजरें ख़फ़ा  सी  लगीं   तब ।
तेरी शाख पर जब भी चर्चा हुआ कुछ।।

यहां छीन कर ही  मिला है कोई   हक ।
करो जंग  हो  गर बचा हौसला  कुछ ।।

तुम्हारे   ये   हालात   बदले   न     होते ।
अगर  याद  करते  हमारी  वफ़ा कुछ ।।

           --नवीन मणि त्रिपाठी

अच्छी लगी है आपकीं तिरछी नज़र मुझे

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अच्छी लगी है आपकी तिरछी नज़र मुझे ।।
समझा गयी जो प्यार का ज़ेरो ज़बर मुझे ।।1

आये थे आप क्यूँ भला महफ़िल में बेनक़ाब ।
तब से सुकूँ न मिल सका शामो सहर मुझे ।।2

नज़दीकियों के बीच बहुत दूरियां  मिलीं ।
करना पड़ा है उम्र भर लम्बा सफर मुझे ।।3

पत्ते भी साथ छोड़ के जाते खिंजां में हैं ।
रोकर बता रहा था यही इक शज़र मुझे ।।4

ये वक्त जश्न  का  है  मेरी  ईद आज है ।
मुद्दत के बाद आज दिखा है क़मर मुझे ।।5

ख़ामोश हूँ मैं कब से ज़माने के दर्द पर ।
सुहबत थी आपकी जो हुआ है असर मुझे ।।6

किस किस पे मैं यक़ीन करूँ ऐ खुदा बता ।
ख़ंजर चुभा गया है मेरा मोतबर मुझे ।।7

अपनी ख़ता पे आज वो चहरे उदास हैं ।।
करने चले थे शौक से जो दर बदर मुझे ।।8

किस्मत  को  राह  खूब पता  है  यहां मियाँ।
ले जाएगी उधर ही वो जाना जिधर मुझे ।।9

मुहमोड़ कर वो चल दिये आया बुरा जो वक्त ।
जो कह रहे थे गर्व से अपना जिग़र मुझे ।।10

इस मैकदे को छोड़ के तौबा करूँ सनम ।
मिल जाये थोड़ी आपसे इज्ज़त अगर मुझे ।।11

मत  पूछिए  हुजूऱ  मेरा  हाल चाल  अब ।
रहती है आजकल कहाँ अपनी ख़बर मुझे ।।12

         नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

221 1221 1221 212
गर हो सके तो  मुल्क  पे अहसान  कीजिये ।।
अब  और  न  हिन्दू  न  मुसलमान कीजिये ।।

भगवान  को  भी  बांट   रहे  आप जात में ।
कितना  गिरे  हैं  सोच  के अनुमान कीजिये ।।

मत रोटियों को सेंकिए  नफरत की आग पर ।
अम्नो  सुकूँ  के  वास्ते  फ़रमान कीजिये ।।

अब रोजियों के नाम भी हो जाए इंतजाम ।
कुछ तो किसी की राह को आसान कीजिये ।।

अपने ही उसूलों को मिटाने लगे हैं अब ।
कुर्सी के लिए आप न विषपान कीजिये ।।

ये फिक्र हमें भी है कि आबाद हो चमन ।
पैदा न वतन में कोई तूफ़ान कीजिये ।।

क़ातिल बना के छोड़ दिया आपने हुजूऱ ।
इंसान की औलाद को इंसान कीजिये ।।

जुड़ता कहाँ है दिल ये कभी टूटने के बाद ।
मुझको  न अभी  और  परेशान कीजिये ।।

उम्मीद मुझे कुछ नहीं है आप से जनाब ।
हक जो मेरा था शौक से कुर्बान कीजिये ।।

बदलेगी हुकूमत भी ज़माने के साथ साथ ।
छोटा न अभी आप ये अरमान कीजिये ।।

उनको जमी पे लाने का है वक्त आ गया ।
अब फैसलों पे आप भी मतदान कीजिये ।।

      ---नवीन मणि त्रिपाठी

खतों का चल रहा जो सिलसिला है

1222 1222 122
खतों का चल रहा जो सिलसिला है।
मेरी उल्फ़त की शायद इब्तिदा  है ।।

यहाँ  खामोशियों  में  शोर  जिंदा ।
गमे  इज़हार  पर  पहरा  लगा है ।।

छुपा  बैठे वो दिल की आग कैसे।
धुंआ घर से जहाँ शब भर उठा है ।।

नही  समझा  तुझे  ऐ  जिंदगी  मैं ।
तू  कोई  जश्न  है  या  हादसा  है ।।

मिला है बावफा वह शख़्स मुझको ।
कहा  जिसको  गया था बेवफा है ।।

ज़माने को दिखी है ख़ासियत कुछ ।
तुम्हारे  हुस्न  पर  चर्चा  हुआ   है ।।

मुआफ़ी तो  ख़ुदा ही  देगा उनको ।
हमारा   दिल  कहाँ  इतना बड़ा  है ।।

ज़रूरत  पर  मिलेंगे हँस के वरना ।
यहां हर शख्स का लहज़ा बुरा है ।।

अजब  मजबूरियाँ  हैं पेट  की  भी ।
तभी तो आदमी  इतना  गिरा  है ।।

वहाँ कुछ सोच कर सच बोलना तुम ।
जहाँ  तोड़ा  गया  वह आइना  है ।।

उठाओ उँगलियाँ मत दुश्मनों पर ।
मेरा  क़ातिल  तो  मेरा रहनुमा है ।।

यूँ देकर ज़ख़्म फिर  ये  मुस्कुराना ।
तुम्हारे   जुल्म   की   ये  इंतहा   है ।।

            नवीन मणि त्रिपाठी

टूटा पत्ता दरख़्त का हूँ मैं

2122 1212 22
इक  ठिकाना  तलाशता  हूँ  मैं ।
टूटा   पत्ता  दरख़्त  का  हूँ   मैं ।।

कुछ तो मुझको पढा करो यारो ।
वक्त  का एक फ़लसफ़ा हूँ   मैं ।।

हैसियत  पूछते  हैं  क्यूं  साहब ।
बेख़ुदी   में   बहुत  लुटा  हूँ  मैं ।।

इश्क़ की बात आप मत करिए ।
रफ़्ता रफ़्ता सँभल चुका हूँ मैं ।।

चाँद इक  दिन उतर  के  आएगा ।
एक   मुद्दत  से  जागता  हूँ  मैं ।।

खेलिए मुझसे पर सँभल के जरा।
इक खिलौना सा काँच का हूँ मैं ।। 

रूठ जाती  है  बेसबब  किस्मत ।
यह  ज़माने  से  देखता  हूँ  मैं ।।

वो  लगाते  हैं  आग  शिद्दत  से ।
देखिए अब तलक जला  हूँ  मैं ।।

ऐ  मुसाफ़िर  जरा मेरी भी सुन ।
काम आए  वो  तज्रिबा  हूँ  मैं ।।

रह गया उम्र भर जो अनसुलझा।
जिंदगी   तेरा  मसअला   हूँ  मैं ।।

इतना  आसां  नहीं  मुकर  जाना ।
आपका ही तो सिलसिला हूँ  मैं ।।

      --नवीन मणि त्रिपाठी

शाम कोई तो मेरे नाम करें

2122     1212     22/112
वस्ल  का  आप  इंतज़ाम   करें ।
शाम  कोई  तो  मेरे  नाम  करें ।।

कोई   उम्मीद   पालकर   तुमसे ।
चैन  कब  तक भला  हराम करें ।।

ख़ास  जलवा है आपका साहिब ।
लोग  तो  हुस्न  को  सलाम करें ।।

कुछ   भरोसा  तो  दीजिये  वरना ।
आप  से  हम  भी  राम राम  करें ।।

चांद   बेशक़   जमीं   पे  आएगा ।
दिल में हासिल कोई मुकाम करें ।।

हमने  पलकें  बिछा  दी राहों में ।
किस तरह और  एहतराम  करें ।।

इश्क़   नीलाम  हो  रहा जब  है ।
ख़ास  बोली का एहतमाम करें ।।

बच  के  रहिये  ज़रा हसीनों  से ।
इक तबस्सुम से जो गुलाम करें ।।

अब मुनाफ़ा की बात मत करिए ।
आप अब और  कोई  काम  करें ।।

छू   रही   आसमाँ  को   महंगाई ।
शादियों   में   न   तामझाम  करें ।।

दौलतों   पर  नज़र  हुई   उनकी।
जाने क्या क्या यहां निज़ाम करें ।।

         -- नवीन मणि त्रिपाठी 
           मौलिक अप्रकाशित

बना रक्खी है उसने बीच मे दीवार जाने क्यों

हुआ अब तक नहीं कुछ हुस्न  का दीदार  जाने  क्यों ।
बना  रक्खी   है  उसने  बीच   मे   दीवार  जाने  क्यों ।।

मुहब्बत थी या फिर मजबूरियों  में  कुछ जरूरत थी ।
बुलाता   ही   रहा  कोई  मुझे  सौ  बार  जाने  क्यों ।।

यहाँ तो इश्क बिकता है यहां दौलत  से  है मतलब ।
समझ  पाए  नहीं  हम भी  नया बाज़ार जाने क्यों ।।

तिजारत रोज  होती  है  किसी के जिस्म  की  देखो ।
कोई करने  लगा है आजकल  व्यापार जाने  क्यों ।।

कोई दहशत है या फिर वो  कलम को  बेचकर बैठे ।
बहुत ख़ामोश  होते  जा  रहे  अख़बार  जाने  क्यों ।।

हर इक इंसान में नफरत सियासत बो गयी  शायद ।
जलेगा मुल्क मुद्दत तक लगा आसार  जाने  क्यों ।।

वो पढ़ लिख कर निवाले के लिए मोहताज़ है देखो ।
यहां सुनती नहीं  कुछ  बात को सरकार जाने क्यों ।।

बड़ी उम्मीद  थी  वो  मुल्क़  की  सूरत  बदल   देंगे ।
लगे  हैं  लोभ   के  आगे  वही  लाचार  जाने  क्यों ।।

तरक्की  हो  चुकी  है  मान   लेता  हूँ मगर  साहब ।
यहां  रोटी  पे  होती  है बहुत  तक़रार  जाने  क्यों ।।

बगावत  कर  चुके  है  जब  रहेंगे  हम  सदा बागी ।
फरेबी  दे  रहे  अब  झूठ  का  उपहार  जाने क्यों ।।

वो चिड़िया उड़ गई जब आपको अपना समझते थे ।
जमाते  आप  मुझ पर  हैं कोई अधिकार जाने क्यों ।।

     - नवीन मणि त्रिपाठी

छलके हैं मेरी आँख से जज़्बात यूँ न जा

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बदले  हुए  हैं  आज  के हालात  यूँ  न  जा ।
छलके हैं मेरी आँख से जज़्बात यूँ  न  जा ।।

शिकवे गिले  मिटा  ले  मुहब्बत  के  वास्ते ।
अब  छोड़  कर  तमाम सवालात यूँ न जा ।।

मायूस  हों न  जाएं कहीं शह्र भर के लोग ।
 आएगी   कद्रदान की  बारात यूँ  न जा ।।

माँगा है तुझको मैं ने दुआओं में  रात  दिन ।
पाया हूँ  मुश्किलों से ये लम्हात  यूँ  न जा ।।

कुछ तो खयाल कर तू खुदा के उसूल पर ।
देकर किसी को हिज्र का सौगात यूँ न जा ।।

खुशबू की तर्ह आया है कुछ  देर तो  ठहर ।
रुक जा मेरे नसीब से  इक  रात यूँ न जा ।।

माना कि तेरे हुस्न  का जलवा है चाँद पर ।
बस बारहा दिखा के ये औकात यूँ न जा ।।

मुझको भी अपना दर्द बताने का हक़ तो दे ।
पूरी  कहाँ  हुई  है अभी  बात  यूँ  न  जा ।।

अम्नो सुकूँ के पास में गुज़रे तो  वक्त  कुछ ।
बाकी  गमों  के  दौर  हैं  इफ़रात  यूँ न जा ।।

है अब्र को खबर कि जमी पर तपिस बहुत ।
होगी   मेरे   दयार   में  बरसात  यूँ  न  जा ।।

ठहरी   हुई    है   रूह   तेरे   इन्तजार   में ।
शायद  हो आखिरी  ये मुलाकात यूँ न जा ।।

      --नवीन मणि त्रिपाठी

अंधेरों का मौसम बदलता नहीं है

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अंधेरों    का  मौसम   बदलता   नहीं    है ।
मेरा   चाँद   घर   से   निकलता  नहीं   है ।।

जरा  उनसे   पूछो  उजालों   की   कीमत ।
दिया  जिनकी  बस्ती  में  जलता  नहीं  है।।

लुटेगा  वो   आशिक   यहां   दिन   दहाड़े ।
मुहब्बत   पे  अब   जोर  चलता  नहीं   है।।

वो    है  चांदनी  रात  का   मुन्तजिर  अब ।
निगोड़ा  ये   सूरज  भी  ढलता  नहीं   है ।।

नज़र  लग  गई  क्या  ज़माने  की  उसको ।
कबूतर  वो   छत   पर  टहलता   नहीं  है ।।

तबस्सुम  के   बदले  वो  जां  मांग  बैठा ।
जिसे  लोग  कहते   हैं  छलता   नहीं  है ।।

तुझे   तज्रिबा    है   तो    आ   मैकदे   में ।
कदम  जाम  पी  कर   सँभलता  नहीं  है ।।

महकते    गुलों    ने    किया   है    इशारा ।
यूँ   ही   कोई   भौरा   मचलता   नहीं   है ।।

खुदा भी अजब है अजब उसकी फ़ितरत ।
किया   मिन्नतें   पर   पिघलता  नहीं   है ।।

लगीं  ठोकरें  तो  वो   हँस  करके  बोला ।
मुकद्दर  में   जो  है  वो  टलता  नही   है ।।

बड़ी   इल्तिजा   है   कि  तू  घर  पे  आये ।
खतों  से  तो  मन  अब  बहलता  नहीं  है ।।

है   बर्दास्त  सबको  सितम  की  ज़लालत ।
लहू  अब   किसी   का  उबलता  नहीं  है ।।

न  कर आजमाइस  पकड़ने  की  उसको ।
कफ़स   में  परिंदा  जो  पलता   नही  है ।।

        --नवीन मणि त्रिपाठी