मेरा यह लेख हिंदुस्तान समाचार पत्र में 21.7.14 को प्रकाशित हुआ ।
- नवीन मणि त्रिपाठी
सावन की हरियाली , मद मस्त हवाएँ ,रिमझिम फुहार , काले काले बादल , दादुर के मीठे गीत, नाचते हुए मोर ,फलों से लदे पेड़ ,झूलों से कजरी और सावन के गीतों की मिठास , भला कौन होगा जो भाव विभोर होने से अपने आप को रोक सके ? एक चुंबकीय आकर्षण से परिपूर्ण यह मधुमास अंग अंग में नव स्फूर्ति और जादुई तरंगों से मन को रोमांचित कर जाता है । यह मॉस भगवान शिव तक को अपनी आकर्षण शक्ति से खीच लाता है । कहा जाता है भगवान शिव सावन मॉस में पृथ्वी लोक में ही विचरण करते हैं ।
भारतीय हिंदी साहित्य में यह मधुमास जब जब आया तब तब साहित्य भी अपनी उफान पर रहा । सावन के प्रभाव से साहित्य कभी अपने आप को अछूता नहीं रख सका । प्राचीन काल से अब तक साहित्य में सावन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है । प्रणय के स्वर इस मॉस में स्वतः अपने चरम पहुँच जाते हैं । मिलान की आशाएं ऊर्जावान हो जाती हैं । संयोग और वियोग की परिभाषाएं दृष्टिगोचर हो उठती हैं । यह अद्भुद दृश्य देख कर कवियों की लेखनी का सक्रिय होना स्वाभाविक है । सूरदास जी लिखते हैं -
प्रीती तौ मरिबौऊ ना विचारे ।
सावन मॉस पपीहा बोले, पिय पिय करि जो पुकारे।
सूरदास प्रभु दरसन कारन ,ऐसी भाँति विचारे ॥ (सूरसागर ८८ )
सावन मॉस में प्रीति की पराकाष्ठा का इससे बेहतर उदहारण दुर्लभ है । विरह की उत्कृष्ट संवेदना मात्र सावन में ही जागती है । गोस्वामी तुलसी दास जी का तो सावन से बहुत ही गहरा संबंध है । पंद्रह सै चौवन विषै कालिंदी के तीर । सावन शुक्ला सप्तमी तुलसी धरेउ शरीर॥ आपका तो जन्म ही सावन में हुआ है । गोस्वामी जी ने सावन में प्रभु के प्रति उपजे प्रेम की व्याख्या बड़े ही सरल शब्दों में कर दी है ।
वरखा रितु रघुपति भवति, तुलसी सालि सुदास ।
राम नाम बर बरन जग, सावन भादव मॉस ॥
दूसरी ओर सावन के प्रभाव के संबंध में गोस्वामी जी लिखते हैं -
उरवी परि कलहीन होइ, ऊपर कला प्रधान ।
तुलसी देखि कलाप गति ,सावन घन पहिचान ॥
अतः जब मोर के पंख जमीन को छूते हुए चलते हैं तब वे कलाहीन होते हैं लेकिन सावन के बादलों को देख कर वे ऊपर उठकर कला से परिपूर्ण हो जाते हैं । सावन मॉस में गोस्वामी जी ने उक्त पंक्तियों से प्रणय के कौतूहल का स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत कर दिया हैं ।
मीरा के नारी मन की संवेदना भी सावन में अछूती नहीं रही है । उनकी लोकप्रिय रचना -
बरसे बदरिया सावन की ,
सावन की मन भावन की ।
सावन में उमंग्यो मेरो मनवा ,
भनक सुनी हरि आवन की ।
सावन की उमंग का जीवंत प्रभाव लेकर रचना आज भी लोगों की जुबान पर अपना अस्तित्व बनाये रखने में सफल है ।
आधुनिक कवियों ने तो सावन की छटाओं पर खूब लेखनी चलाई है । कवि हरिवंश राय बच्चन जी ने लिखा है -
सिंचित सा कंठ पपीहे का ,
कोयल की बोल है भीगी सी ,
रस डूबा स्वर में उतराया ,
अब दिल बदले घड़ियाँ बदली
यह गीत नया मैंने गया ।
साजन आये ,सावन आया ॥
कानपुर की धरती में जन्मी साहित्य जगत को महिमामंडित करने वाली पहचान आदरणीय गोपालदास नीरज जी अपने कनपुरिया अंदाज में प्रणय संवेदनाओं को सावन से जोड़ते हुए कहते हैं -
यदि मै होता घन सावन का ।
गोल कपोलो पर लुढ़का कर ,प्रथम बूँद वर्षा की ।
याद दिलाता मिलन प्रात वह प्रथम प्रथम चुम्बन का ॥
यदि मै होता घन सावन का ।
महान कवि निराला जी भी अपने अंतर मन की भावनाओं को सावन की धारा में बहने से नहीं रोक सके । कनपुरिया अनुभूति व अभिव्यक्ति तो साहित्यिक सुरम्यता समाहित कर ही लेती है । निराला जी ने लिखा है -
फिर लगा सावन मन भावन झूलने घर घर पड़े ।
सखि चीर साड़ी की सवांरी झूलती झोंके बड़े ।
वन मोर चारों ओर बोले पपीहे पी पी रटे ।
ये बोल सुनकर प्राण बोले ,ज्ञान भी मेरे हटे ॥
सावन में पृथ्वी से गरजते बादलों का आलिंगन , सब कुछ प्रेम मय कर देता है चारों दिशाओं की हवाएँ शीतलता के संग गुनगुनाती से प्रतीत होती हैं । सावन का चुंबकत्व चेतना शून्य कर देता है । मन के आवेग प्राकृतिक छटाओं में लीन हो जाते हैं । तभी तो कवि रामधारी सिंह दिनकर जी ने प्रणय निवेदन की पंक्तियाँ सावन में लिख गए -
जेठ नहीं यह जलन ह्रदय की ,
उठ कर जरा देख तो ले ,
जगती में सावन आया है
मायाविनी सपने धो ले ।
हिंदी साहित्य में अनेक कवियों ने अपनी कलम से सावन की अनुभूतियों को जीवंत किया है । कल्पनाओं का ज्वार सावन में जरूर आता है । विरह वेदनाओं के स्वर तीव्र हो जाते हैं । हर ओर प्रियतम से मिलन की अपेक्षाएं प्रकृति की रंगीनियों के साथ ताल से ताल मिला रही होती हैं । प्रकृति के कण कण में रोमांच होता है । प्रकृति की निकटता का अनुभव ही कवि व साहित्यकार का जन्मदाता बन जाता है । जब जब सावन आया साहित्य के पुरोधाओं की लेखनी से अमर रचनाएँ बरसती रहीं हैं ।
इति