तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

गुरुवार, 10 मई 2018

ग़ज़ल --परिंदा रात भर बेशक़ बहुत रोता रहा होगा

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कफ़स में ख्वाब उसको आसमाँ का जब दिखा होगा ।
परिंदा    रात   भर   बेशक   बहुत  रोता  रहा   होगा ।

कई  आहों  को  लेकर  तब  हजारों  दिल  जले  होंगे । 
तुम्हारा  ये  दुपट्टा  जब   हवाओं   में   उड़ा    होगा ।।

यकीं   गर   हो  न  तुमको  तो  मेरे  घर देखना आके।
तुम्हरी  इल्तिजा  में  घर  का  दरवाजा  खुला  होगा ।।

रकीबों   से   मिलन  की  बात  मैंने  पूछ  ली   उससे।
कहा  उसने  तुम्हारी  आँख  का  धोका  रहा  होगा।।

बड़े  खामोश  लहजे में  किया  इनकार था  जिसने ।
यकीनन  वह   हमारा  हाल   तुमसे  पूछता  होगा ।।

उठाओ रुख से मत पर्दा यहां आशिक  मचलते  हैं ।
तुम्हारे  हुस्न  का  कोई  निशाना  बारहा   होगा ।।

तबस्सुम   आपका   साहब  हमारी  जान   लेता  है ।
अदालत में कभी तो जुल्म पर  कुछ फैसला होगा।।

चले  आओ   हमारी   बज़्म   में  यादें   बुलाती   हैं ।
तुम्हारा  मुन्तजिर  भी  आज  शायद  मैकदा  होगा ।।

अगर है  इश्क  ये  सच्चा  तो  फिर वो मान जायेगी । 
मुहब्बत में भला कैसे  कोई  शिकवा  गिला   होगा ।।

बड़ी  आवारगी  की  हद  से  गुजरी  है मेरी ख्वाहिश ।
तुझे  कैसे  बताऊं  इश्क  में  क्या  क्या  हुआ  होगा ।।

वो पीता छाछ को अब फूंककर  कुछ दिन से है देखा।
मुझे  लगता  है शायद  दूध  से  वह  भी  जला होगा ।।

किया था फैसला उसने जो बिककर जुल्म के हक़ में ।
खुदा   की  मार  से । यारों  वही   रोता ।मिला  होगा ।।

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            -- नवीन मणि त्रिपाठी

आज हरम में रात बिताने आया हूँ

जुल्म   नहीं   मैं  उन  पर  ढाने  आया   हूँ ।
कहते   हैं   क्यों   लोग  सताने   आया   हूँ ।। 

तिश्ना  लब  को  हक़ मिलता है पीने  का ।
मै  बस  अपनी  प्यास  बुझाने  आया हूँ ।।

हंगामा     क्यों    बरपा    है    मैखाने   में ।
मैं    तो   सारा   दाम   चुकाने   आया.  हूँ ।।

उनसे  कह  दो  वक्त  वस्ल  का  आया  है ।
आज   हरम  में   रात    बिताने  आया  हूँ ।।

है  मुझ  पर   इल्जाम  जमाने   का   यारों ।
मैं   तो   उसकी   नींद   चुराने   आया  हूँ ।।

फितरत  तेरी  थी  तूने  दिल  तोड़  दिया ।
लेकिन  मैं  तो  प्यार   निभाने  आया  हूँ ।।

मुझसे    मेरा   हाल   न   पूछो  ऐ   जानां।
मैं   तुझमे   अहसास   जगाने   आया  हूँ ।।

हिज्र में कितनी चोट मिली है इस दिल को ।
आज  तुझे  हर  जख्म  दिखाने  आया  हूँ ।।

दीवानों    की   रात    गुजरती    है   कैसे ।
मैं    तुमको   वह   हाल   सुनाने  आया हूँ ।।

मैं   ग़ज़लों  से  मोती  चुनकर  रखता  था ।
आज  तुम्हे  इक  शेर   सुनाने   आया  हूँ ।।

आवारा    बादल    कहते   हैं   लोग   मुझे ।
फिर  भी   उनकी   प्यास  बुझाने आया हूँ ।।

      -- नवीन मणि त्रिपाठी

बो बताते रहे सिर्फ मजबूरियां

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हो  गईं   इश्क  में    कैसी    दुश्वारियां ।
हाथ    आती   गयीं  सिर्फ    नाकामियां।।

बस  हुई  ही  नहीं  उनसे नजदीकियां ।
वो   बताते    रहे   सिर्फ   मजबूरियां ।

इस  तरह  मुझपे  इल्जाम  मत दीजिये ।
कब   छुपीं  आप  से  मेरी   लाचारियां ।।

उनकी    तारीफ़   करती    रहीं   चाहतें ।
वो   गिनाते  रहे   बस   मेरी    खामियां ।।

दिल  चुरा  ले  गई   आपकी  इक   नजर ।
कर    गए  आप  कैसे  ये    गुस्ताखियां ।

दिल जलाने की साजिश से क्या फायदा ।
दे  गया  कोई    जब  आपको    चूड़ियां ।।

उन  दरख्तों  से मैं  क्या  शिकायत  करूँ ।
जब   लचकती   रहीं  बाग  में  टहनियां।।

एक  आई   लहर   सब   उड़ा   ले   गयी ।
कुछ   बचा   ही  नहीं  प्यार  के  दरमियाँ ।।

पार  करने  का   जब  हौसला  ही  न था ।
क्यों    समंदर  में  उतरीं  नईं   कश्तियाँ ।।

हिज्र   के   रास्ते   पर  चला   था   मगर ।
रुक  गये  यूँ  कदम   देखकर सिसकियाँ ।।

हम    घटाते     रहे   उम्र    भर    फासले ।
तुम      बढाते      गये    बेसबब   दूरियाँ  ।।

            --- नवीन

अदाएँ जगाकर गईं तिश्नगी को

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वो जब  भी  चला    छोड़ने   मैकशी   को ।
अदाएं     जगा   कर    गईं   तिश्नगी   को ।।

बयाँ  हो   गयी   आज   उनकी   कहानी ।
छुपाते   रहे   जो   यहां    दुश्मनी    को ।।

अमीरों की महफ़िल में सजधज के जाना ।
वो   देते   नहीं   अहमियत   सादगी  को ।।

खुदा  की  नज़र  है  हमारे  करम   पर ।
भरोसा  कहाँ   रह   गया  आदमी को।।

पकड़ कर उँगलियों को चलना था सीखा।
दिखाते   हैं  जो   रास्ता  अब  हमी   को ।

मुहब्बत   हुई  इस  तरह   आप   से  क्यूँ ।
अभी  तक  न  हम  जोड़  पाये कड़ी को ।।

मेरे  कत्ल  का  कर  गए  फ़तवा  जारी ।
जो  कल  दे  रहे  थे  दुआ  जिंदगी  को ।।

अदब   काफिया   बह्र   सब  हैं  नदारद ।
जनाजे  पे  वो   रख   रहे  शायरी  को  ।।

मुहब्बत  को   जिसने  तबज्जो नहीं   दी ।
वो  तरसा बहुत उम्र  भर  इक 
ख़ुशी को ।

वो सावन का कोई दरिया नहीं था

जमीं  पर चाँद  क्यूँ  उतरा  नहीं   था ।
कभी  सूरज  जहाँ ढलता  नहीं  था ।।

बहा  ले  जाए   तुमको   साथ  अपने ।
वो  सावन  का  कोई  दरिया  नहींथा।।

मेरे  महबूब की  महफ़िल  सजी थी ।
मगर  मेरा   कोई  चर्चा   नहीं   था ।।

मैं   देता   दिल  भला   कैसे   बताएं ।
सही कुछ  आपका  लहज़ा नहीं था ।।

जरा  सा  ही  बरस  जाते  ऐ   बादल ।
हमारा  घर  कोई   सहरा  नहीं   था ।।

जले   हैं  ख्वाब  कैसे   आपके   सब ।
धुंआ  घर  से  कभी  उठता  नहीं था ।।

तुम्हारी    हरकतें    कहने   लगीं   थीं।
तुम्हारा   प्यार   तो  सच्चा  नहीं   था ।।

बयाँ गम कर गया फितरत थी उसकी ।
जो  आंसू  आँख  में  ठहरा  नहीं  था ।।

सुना   हूँ  आजकल  वो  पढ़  रहा  है ।
मेरे  चेहरे  को जो  पढता नहीं   था ।।

जरूरत पर  हुआ  है  मुन्तजिर  वो ।
हमारे  दर  पे  जो रुकता  नहीं था ।।

नया    है  तज्रिबा   मेरा   भी  यारों ।
कभी मैं इश्क़ में उलझा  नहीं था ।।

ख़फ़ा   है   वह  हमारी  आरजू   से ।
जो हमसे आज तक रूठा नहीं था ।।

बता    देते    मुहब्बत    गैर   से   है ।
हमारा    आपसे   पर्दा   नहीं   था ।।

             नवीन मणि त्रिपाठी

किसी का जुल्म पाला जा रहा है

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बड़ी  मुद्दत   से  टाला  जा    रहा   है ।
किसी  का  जुल्म पाला जा रहा  है ।। 

मुझे    मालूम   है  वह    बेख़ता   थी ।
किया  बेशक  हलाला  जा  रहा   है ।।

लगीं हैं बोलियां फिर जिस्म पर क्यूँ ।
यहाँ  सिक्का उछाला  जा  रहा  है ।।

कहीं   मैं   खो  न  जाऊं  तीरगी   में ।
मेरे   घर   से  उजाला   जा  रहा  है ।।

उसे   महबूब  की आहट मिली क्या  ।
चमन  को  फिर खंगाला जा  रहा है ।।

नशे  में  है  कहाँ वह रिन्द अब  तक ।
कदम  उससे  संभाला  जा  रहा है ।।

तुम्हारे  इश्क   में   लुटता  रहा   मैं ।
दिवाला  फिर निकाला जा  रहा  है ।।

करेगा काम क्यों वह  नौजवां  अब ।
उदर तक तो निवाला  जा  रहा है ।।

उसे  इज्जत  मिलेगी   कौन  जाने ।
मेरा   लेकर  हवाला  जा  रहा   है ।।

रहूँ  खामोश  अक्सर  दर्द  सहकर ।
मुझे  सांचे  में  ढाला  जा  रहा  है ।।

बला  का  खूब  सूरत  चाँद   होगा ।
जिसे  लेने   रिसाला  जा   रहा  है ।।

          -- नवीन मणि त्रिपाठी

गर हो सके तो होश में आने की बात कर

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बेबस  पे   और   जुल्म  न  ढाने   की  बात  कर।
गर  हो  सके  तो  होश  में  आने  की  बात कर ।।

क्या  ढूढ़ता  है  अब   तलक  उजड़े   दयार  में ।
बेघर  हुए   हैं  लोग   बसाने   की   बात   कर ।।

खुदगर्ज   हो   गया   है  यहां  आदमी   बहुत ।
दिल से कभी तो  हाथ मिलाने की बात  कर ।।

मुश्किल से दिल मिले हैं बड़ी मिन्नतों के बाद ।
जब हो गया है प्यार निभाने  की  बात  कर ।।

यूँ  ही  बहक  गये  थे  कदम  बेखुदी  में  यार ।
इल्जाम  मेरे   सर  से  हटाने  की   बात  कर ।।

मैंने  भी  आज  देख   ली  दरिया  दिली  तेरी ।
अब  तो  न  और  पीने  पिलाने  की बात कर ।।

मुद्दत  से   हँस   रहा  मेरी  मजबूरियों   पे  तू ।
कुछ  तो  मेरा  गुनाह  बताने  की  बात  कर ।।

गिरता रहे क्यों बारहा नजरों से कोई शख्स ।
शिकवे शिकायतों को मिटाने की बात कर ।।

क्यूँ  रट  लगाये  बैठा है बस  एक  बात  पर ।
तू  भी  कभी  कभार ज़माने  की बात कर ।।

        ---नवीन मणि त्रिपाठी
          मौलिक अप्रकाशित

जाम छलका है पास आ जाओ

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जाम छलका  है पास आ जाओ ।
ले के खाली  गिलास  आ जाओ ।।

जिंदगी  फिर  बुला रही  है तुझे ।
लब पे आई है प्यास आ जाओ ।
  
हिज्र  के  बाद  चैन मिलता कब ।
मन अगर  है उदास आ जाओ ।।

तीरगी   बेहिसाब   कायम   है ।
चाहिए अब उजास आ जाओ ।।
  
कोई  बैठा   है  मुन्तजिर  होकर ।
मत लगाओ कयास आ जाओ ।।

आ  रहे   हैं   तमाम  भौरे   अब ।
गंध  में  है  मिठास  आ जाओ ।।

देखना  है  अगर  तुम्हें   जन्नत ।
तुम हमारे निवास  आ  जाओ ।।

बारिशें   बेसबब    नहीं    होतीं ।
आज भीगा लिबास आ जाओ ।।

इस तरह बेनकाब मत  निकलो ।
गैर को  तुम न  रास आ जाओ ।।

बात  इतनी सी और  कहनी थी ।
इक  पुरानी  है आस  आ  जाओ ।।

        -- नवीन मणि त्रिपाठी।
        मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल ---तुम्हारे साथ कोई शाम ढल तो सकती है

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बड़ी अजीब है ख्वाहिश  मचल तो सकती है ।
तुम्हारे साथ कोई शाम ढल तो सकती है ।।

यकीन कर लूं जुबां पर मगर भरोसा क्या । 
जुबान दे के तू अब भी फिसल तो सकती है ।।

जरा  सँभल के है चलना हमारी मजबूरी ।
तेेरी जफ़ा की बुझी आग जल तो सकती है ।

उसे खबर है कि महबूब आज आया है ।।
नकाब डाल के घर से निकल तो सकती है ।।

बला की आंधी है तुझको उड़ा न ले जाये ।
तेरे दयार की खुशियां निगल तो सकती है ।।

जो पास आओ तो रिश्तों में आये गर्माहट ।
जमी जो बर्फ है थोड़ी पिघल तो सकती है ।

ये कोशिशें हैं तमन्ना रहे न अब बाकी ।
सुना हूँ हिज्र की तारीख़ टल तो सकती है ।।

अभी यकीन का दामन मैं छोड़ दूं कैसे ।
तेरे मिज़ाज़ की सूरत बदल तो सकती है ।

वो लड़ चुकी है जमाने से जिंदगी के लिए ।
तुम्हारे वार से पहले सँभल तो सकती है ।।

           नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल --तुझे याद हो कि न याद हो

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तेरी रहमतों पे सवाल था तुझे याद हो कि न याद हो ।
मुझे हो गया था मुगालता तुझे याद के न याद हो ।।

तेरे इश्क़ में जो करार था तुझे याद हो के न याद हो ।
जो मिला था मुझको वो फ़लसफ़ा तुझे याद हो कि न याद हो ।।

वो गुरुर था तेरे  हुस्न का जो नज़र से तेरी छलक गया ।
मेरे रास्ते  का वो फ़ासला तुझे याद हो कि न याद हो ।।

वहां दफ़्न है तेरी  याद सुन ,वो शजर भी कब से गवाह है ।
है मेरी वफ़ा का वो मकबरा तुझे याद हो कि न याद हो ।।

वो तमाम उम्र गुजार दी तेरी इक अदा की फ़िराक़ में ।
मेरे ख्वाब का था वो हौसला तुझे याद हो कि न याद हो ।।


तेरी  छत पे जो थी नजर गयी कोई रूह छू के मचल गयी ।
था नया नया सा वो सिलसिला तुझे याद हो कि न याद हो ।।

यूँ ही बेसबब थीं वो आधियाँ कई ख्वाहिशों को मिटा गयीं ।
मेरी जिंदगी का वो हादसा तुझे याद हो  कि  न याद हो ।।

         
नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

आज़माने में बहुत लोग मुकर जाते हैं

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टूटकर ख्वाब  ज़माने  में बिखर  जाते   हैं ।
आज़माने  में  बहुत  लोग  मुकर  जाते  है ।।

वो जलाता ही रहा हमको बड़ी  शिद्दत से ।
हम तो सोने की तरह और निखर जाते हैं ।।

हुस्न  वालों  के  गुनाहों  पे  न पर्दा  डालो ।
क्यूँ भले  लोग यहां इश्क से डर  जाते  हैं ।।

मुन्तजिर दिल है यहां एक शिकायत लेकर ।
आप चुप चाप गली  से जो  गुज़र जाते हैं ।।

कुछ उड़ानों की तमन्ना को लिए था जिन्दा ।
क्या हुआ आपको जो पर को कतर जाते हैं।।

मत बयां कीजिये अपने भी सितम के किस्से ।
दर्द  बनकर  वो यहां  दिल  में  ठहर  जाते हैं ।

इस मुहब्बत पे है इल्जाम का साया मुमकिन ।
वो  सरे  आम  निगाहों  से  उतर  जाते  हैं ।।

उसकेआने की खबर जबभी हुई महफ़िल को ।
आहटे  हुस्न से कुछ लोग  सवंर  जाते  हैं ।।

क्यूँ छुपाते हैं मियाँ आप  मुहब्बत  अपनी ।
सबको मालूम है अब आप किधर जाते हैं ।।

        ---नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल ---मैं बेगुनाह था ये बताने से डर लगा

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अन्याय के विरोध में जाने से डर लगा ।।
भारत का संविधान बताने से डर लगा ।।

यूँ ही बिखर न जाये कहीं मुल्क आपका ।
कोटे  पे आज बात चलाने  से डर लगा ।।

घोला है ज़ह्र अपने  गुलशन में इस तरह ।
अब जिंदगी को और बचाने से डर लगा ।।

फर्जी रपट लिखा के वो अंदर करा गया ।
मैं  बे गुनाह  था  ये बताने  से  डर लगा ।।

शोषित हुआ सवर्ण करे भी तो क्या करे ।
उसको तोअपना ज़ख्म दिखाने से डर लगा ।।

कैसी स्वतन्त्रता है ये आजाद मुल्क की ।
अब लोकतंत्र देश में लाने से डर लगा ।।

जो छीनता है रोटियां बच्चों के हाथ से ।
ऐसे वतन पे जान लुटाने से डर लगा ।।

लाचार कर दिया है सियासत की मार ने।
मुझको तो अपनीजात लिखाने से डर लगा ।।

जो राष्ट्र द्रोह कर रहे भारत को बंद कर ।
गुंडो से कत्ले आम कराने से डर लगा ।।

नामो निशां मिटाने की हसरत लिए हैं वे ।
उनसे तो आज हाथ मिलाने से डर लगा ।।

ठग कर  गयी है खूब ये  जम्हूरियत मुझे ।
अपना यहां  वजूद बचाने  से डर लगा ।।

          -- नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल --जल रहा है मुल्क अब मतलब परस्ती के लिए

फिर  लगाई आग किसने  एक कुर्सी के लिए ।
जल रहा है मुल्कअब मतलब परस्ती के लिए।।

जन्म ऊंची जात  में  लेना  यहाँ  अपराध   है ।
छीन  लेती  हक  यहां  सरकार गद्दी के लिए ।।

कौन करता फिक्र अब हिन्दोस्तां की शाख़ पर ।
ज़ह्र  घोला  जा रहा अपनी तरक्की के लिए ।।

नफरतों की  ईंट से दीवार  लम्बी  बन  गयी ।
खाइयां खोदी गयीं मासूम  बस्ती के  लिए ।।

खा रहे दरदर की ठोकर अक्ल वाले नौजवां।
बिक गया घर बाप का जिनकी पढाई के लिए।।

राष्ट्र  जब जीने लगे वैसाखियों  के  साथ में ।
नष्ट  हो जाता वही जो बोझ धरती के लिए।।

है कोई  अंधा  यहां  धृतराष्ट्र  सा कानून जब।
फिर  महाभारत  छिड़ेगा न्यायवादी  के लिए।।

          नवीन मणि त्रिपाठी
         मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल - किसने दिलों के बीच में ये ख़्वार कर दिया

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जिस रोज़ उसने  प्यार  का  इजहार  कर दिया।
इस  जिंदगी  को और भी  दुस्वार  कर  दिया ।।

चिंगारियों  से खेलने  पे कुछ  सबक  मिला ।
घर  को  जला के मैंने भी अंगार कर  दिया ।।

उठने  लगीं  हैं उंगलियां  उस  पर  हजार  बार ।
जब  उसने मुझको हुस्न का हकदार कर दिया।।

शायद   पड़ी   दरार   है  रिश्तों   की  नींव  में ।
किसने  दिलों  के  बीच  मे  ये ख्वार कर  दिया ।।

मांगी  थी  मैंने   एक  तबस्सुम   भरी   नज़र ।
शर्मा के उसने बात से  इनकार  कर   दिया ।।

जीने  का हक़ था  चैन से  जीता मैं शान  से ।
बस दिल चुरा के आपने  लाचार  कर दिया।।

यूँ  ही तड़प के रह गया मछली  की  तर्ह मैं।
जबसे निगाह से वो नया  वार  कर  दिया ।।

देखा किया मैं उम्र तलक  ख्वाब बेहिसाब।
इन  चाहतों  के दौर ने  बीमार  कर  दिया ।।

उतरा  है  चाँद  बज़्म में  देकर  मुझे  ख़बर ।
इस दिल की ख्वाहिशात को गुलज़ार कर दिया।।

छलके जो  दर्द  मेरी  जुबाँ से कभी  कभार ।
गम को मेरे तो आपने  अखबार कर दिया ।।

नीलामियों के दौर  से गुजरी  है  आशिकी ।
तुमने गरीब खाने  को बाजार  कर  दिया ।।

          --- नवीन मणि त्रिपाठी

इक नज़र प्यार की बेवफा ले गयी

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क्या बताऊँ कि  हम से वो क्या  ले गई ।
इक  नज़र  प्यार  की  बेवफ़ा ले  गई ।।

इस   तरह   से  अदाएं   मचलने   लगीं ।
तिश्नगी   रूह  तक  वह  जगा  ले  गई ।।

जबभी निकले हैंअल्फाज दिल से कभी ।
वह  मुहब्बत  ग़ज़ल  में  निभा  ले गई ।।

एक   दीवानगी   सी  हुई   उनको  तब ।
जब भी  खुशबू बदन  की सबा ले गई ।।

बेकरारी    में    गुजरेंगी    रातें    वहां ।
तू  मेरे  इश्क़  का  तजरिबा   ले  गयी ।।

लौट आओ मुझे होश  खोना  है  फिर ।
रूठकर  क्यूँ  मेरा  मैकदा  ले    गयी ।।

यह शरारत नही थी तो  क्या  थी बता ।
वस्ल  का  तू  मेरे   रास्ता    ले   गयी ।।

लुट  गए  आप भी  लुट  गयीं हस्तियां ।
जब चुरा कर वो दिल ख़मखा ले गयी ।।

नाज़ था उसको हुस्नो अदा  पर  बहुत ।
आशिकी  हर  अना  को  उड़ा ले  गई ।।

एक नागन  के फन की  तरह थी  नजर ।
डस  लिया जब वो नजरें झुका ले  गई ।।

          -- नवीन मणि त्रिपाठी
           मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल --यूँ नज़र से उतर गए कुछ लोग

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आज  हद से  गुजर  गए  कुछ  लोग ।
यूँ  नजर   से  उतर   गए  कुछ  लोग ।।

इस   कफ़स   में   नए   परिंदे    हम ।
पर  हमारा   क़तर   गए  कुछ  लोग ।।

करके    वादा   यहां   तो शिद्दत   से ।
बेसबब   ही  मुकर  गए  कुछ  लोग ।।

आशिकी उनके बस  की बात  कहाँ ।
चोट खाकर  सुधर  गए कुछ  लोग ।।

अब कसौटी पे  उनको क्या  रखना ।
आजमाते  ही डर  गए  कुछ  लोग ।।

हर  तरफ   जल  रही   यहां  बस्ती ।
कौन  जाने किधर  गए  कुछ  लोग ।।

छोड़िये    बात    अब   मुहब्बत  की ।
टूट कर  फिर  बिखर गए  कुछ लोग ।।

क्या  बताऊँ  मैं  किस  तरह दिल में ।
दर्द  बन  कर ठहर  गए  कुछ  लोग ।।

देखकर    जुल्म   बेटियों   पर    तो।
मुल्क  में भी सिहर गए कुछ लोग ।।

         ---नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल -किसी चेहरे पे हम ठहरी नज़ाक़त देख लेते हैं

छुपी  हो  लाख   पर्दों  में  मुहब्बत   देख  लेते  हैं ।
किसी  चहरे  पे  हम ठहरी  नज़ाकत देख लेते हैं ।।

तेरी  आवारगी  की  हर  तरफ  चर्चा  ही  चर्चा  है ।
यहां  तो  लोग  तेरी  हर  हिमाक़त  देख  लेते  हैं ।। 

चले  आना  कभी  दर  पे अभी तो  मौत  बाकी  है ।
तेरे  जुल्मो  सितम  से  हम  कयामत  देख लेते हैं ।।

बड़ी   मदहोश  नजरों  से  इशारा हो  गया  उनका ।
दिखा  वो  तिश्नगी अपनी  लियाकत  देख  लेते हैं ।।

खबर तुझको नहीं शायद तेरी उल्फत में हम अक्सर ।
जमाने  भर  के  लोगों  की  हिदायत  देख  लेते हैं ।।

मेरे  अहसास  का  अंदाज  तुझको  है  कहाँ  साकी ।
अगर  तू  है  तो  ये  दुनियाँ  सलामत  देख  लेते हैं ।।

परेशां  हो  के  गुजरे  हैं  इसी  कूचे  से हम भी जब।
तुम्हारी  मुस्कुराहट  में  किफ़ायत   देख  लेते   हैं ।।

गज़ब अंदाज़ है उनका गज़ब दरिया दिली उनकी ।
रिअाया  के लिए वो भी  रिआयत। देख  लेते  हैं ।।

झटक  के जुल्फ वो चलते अदाएं हैं बड़ी क़ातिल ।
हम उनकी आँख की अक्सर शरारत देख लेते हैं ।।

हसीनों  से  सँभल  कर  तो यहाँ चलना है मजबूरी।
यहाँ  मासूमियत  में   हम  सियासत  देख  लेते  हैं ।।

बहुत  बेचैन  दिखते  हैं  ये  दीवाने  चमन  में  जब ।
तुम्हारे  हुस्न   में   होती   इज़ाफ़त   देख  लेते   हैं ।। 

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         --नवीन मणि त्रिपाठी

यूँ ही तमाम उम्र कटी बेखुदी के साथ

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जब से गये हैं आप किसी  अजनबी के साथ।
यूँ  ही  तमाम उम्र  कटी  बेखुदी   के  साथ ।।

कुछ वक्त आप  भी  तो  गुजारें   मेरे  करीब ।
मत  जाइए  जनाब  अभी  बेरुखी  के साथ ।।

कहने  लगे  है  लोग  जिन्हें   माहताब   अब ।
मुझको मिले कहाँ वो कभी रोशनी के साथ ।।

है मुतमइन ही कौन यहां ख्वाहिशों के बीच।
लाचारियाँ दिखीं है बहुत आदमी के साथ ।।

तन्हाइयों  का  वक्त  भी  मिलना  मुहाल है ।
चलती  है रोज फिक्र यहां जिंदगी के साथ ।।

गम  से निज़ात कौन अभी  पा सका हुजूर ।
रहते तमाम लोग यहाँ  मयकशी  के  साथ ।।

डूबा  हुआ   है   शह्र  अना  के  खुमार    में ।
मिलते  कहाँ  हैं  लोग यहां बन्दगी के साथ ।।

मफ़हूम  है जुदा ये ग़ज़ल  भी  है कुछ  जुदा ।
शायद कलम चली है कोई ताजगी के साथ ।।

खिलने का वक्त कौन दे भौरे हैं बद मिजाज ।
क्या हो रहा है आज चमन में कली के साथ ।।

यूँ   तो   शराब   खूब  बटी  मैकदे  में  आज ।
होती  नही  नसीब  उन्हें  तिश्नगी  के  साथ ।।

         --- नवीन मणि त्रिपाठी 
           मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल --और वे आइने में सँवरते रहे

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'इस  चमन  में   शजर  चन्द  ऐसे    रहे ।
जो  सदा   ज़ुल्म  तूफ़ाँ   का  सहते रहे।।

घर   हमारा  रकीबों   ने   लूटा   बहुत ।
और    वे   आईने   में   सँवरते   रहे ।।

था तबस्सुम का अंदाज  ही  इस  तरह ।
लोग   कूंचे   से  उनके  निकलते   रहे ।।

देखकर जुल्फ को  होश क्यों खो दिया ।
आपके    तो     इरादे   बहकते     रहे ।।

दिल  लगाने  से  पहले  तेरे  हुस्न  को ।
जागकर  रात  भर  हम भी पढ़ते रहे ।।

यह मुहब्बत नहीं और क्या थी सनम ।
लफ्ज़   खामोश  थे  बात  करते  रहे ।।

कैसे  कह  दूं  कि  मुझसे  जुदा आप हैं ।
ख्वाब   में   आप  तो   रोज़ मिलते   रहे ।।

कुछ तो साजिश मुहब्बत में थी आपकी ।
बेसबब  आप  क्यूँ  मुझको  छलते  रहे ।।

खुदकुशी कर लूं हम ये है मुमकिन कहाँ ।
जिंदगी   के   लिए   हम  तरसते    रहे ।।

मैं  सजा  लेता पलकों में तुमको मगर ।
इश्क  में  तुम  भी  चेहरे  बदलते  रहे ।।

कुछ शरारत  लिए  थीं वो अंगड़ाइयां ।
देखकर  उम्र  भर  हम  मचलते  रहे ।।

कर गयी जो असर आपकी वह नजर ।
आज  तक  बेखुदी   में  टहलते   रहे ।।

दो  बदन  जल उठे  आग  ऐसी  लगी ।
मुद्दतों  बाद    हम भी  सुलगते  रहे ।।

          --नवीन मणि त्रिपाठी