तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

बुधवार, 30 अप्रैल 2014

भारतीय बाल मजदूर


मित्रो मजदूर दिवस पर मेरी यह रचना सप्रेम भेट


तपती दोपहरी में ,
पसीने से लथ पथ ,
सड़क पर पत्थर बिखेरता एक मासूम |
बार बार कुछ सोचता है ,
मन को कुरेदता है |
आज माँ खुश हो जाएगी ,
कुछ आटा चावल मगाएगी |
दर्जी के पास भी जाना है ,
माँ के फटे आँचल में ,
चकती लगवाना है |
छोटा भाई तो कल भूँखा ही सोया था ,
रोटियां कम थी इस लिए रोया था |.
आज पूरे सौ मिलेंगे ...
इतनी महगाई में क्या ला सकेंगे.... ?
अचानक ठीकेदार प्रकट होता है |
अपनी जुबान से आग उगलता है |
देख ! तुझसे ज्यादा काम तेरे बड़ों ने किया है |
तू ने क्या कामचोरी किया है ?
मासूम तिलमिलाया ,
कुछ बुदबुदाया |
बाबु जी ! मेरे हाथ ... मेरी टोकरी छोटी है |
घर में ना चावल ना रोटी है |
धीरे धीरे पूरा कर दूंगा ,
आप की शिकायत को दूर कर दूंगा |
आज मुझे कुछ पैसे दे देना |
थोड़ी दया कर देना |
लाल हो गयीँ ठीकेदार की ऑंखें |
कुछ नहीं सुननी तेरी बातें |
बात ठीके की थी |
ना छोटे ना बड़े की थी |
तूने काम पूरा नहीं किया है |
कंपनी को धोखा दिया है |
अभी चुप चाप घर चले जाना ,
कल से काम पर मत आना |
मासूम चकरा गया |
आँखे भर आयीं .....
शब्द भर्रा गया |
नन्हीं सी कल्पना भी हो गयी चूर चूर |
यही है भारतीय बाल मजदूर |
यही है भारतीय बाल मजदूर ||
_नवीन

रविवार, 27 अप्रैल 2014

मुक्तक


मुक्तक


वो  सहादत  को  फरेबी  करार  कर  देंगे ।
अब शहीदों को भी वो  दागदार  कर देंगे ।।
सारी तहजीब डस गयी है सियासी नागिन ।
वतन  की शाख को  वो तार तार  कर देंगे ।।


उनके  ऐलान  पे वो  ईद मानाने  निकले ।
सजा ए रेप को वो दिल से भुलाने निकले ।।
वो  दरिंदो  के देवता  का  असर रखते हैं ।।
हादसे  होंगे नहीं  !अब वो ज़माने निकले ।।


ये तो दीवार का  ,रश्मो -रिवाज रखते हैं ।
नफरतो के लिए बेहतर मिजाज रखते है ।।
कैसे  इन्सान को इन्सान  से काटा  जाए ।
मुहब्बतों  को मिटाने  में  नाज  रखते हैं ।।


ये शिगूफों को को तो बस यूँ उछाल देते हैं ।
एक तीखा सा जहर दिल में डाल देते हैं ।।
कितने शातिर हैं ये कुर्सी को चाहने वाले ।
अमन -शुकूँ  का  कलेजा निकाल लेते हैं ।।

                      नवीन

रविवार, 20 अप्रैल 2014

दर्द


दर्द


जब दरिंदों ने उसको आग लगाई होगी ।
उंगलियाँ लोगों ने उस पे ही उठाई होगी ।।


खास अंदाज में थिरके थे उसके पाँव बहुत ।
काँच के टुकड़ों पे घुघरू को बजाई होगी ।।


जिस्म मजबूरियों के नाम बिका करती है ।
बड़ी मुश्किल से दुपट्टे को हटाई होगी ।।


जार के गोश्त को खाए सफ़ेद पोश फकत ।
वो तो दातों तले ऊँगली को दबाई होगी ।।


यहाँ इन्सान को इन्सान खा गया देखो ।
दावते अस्मते गिद्धों ने उडाई होगी ।।


इस तिजारत सी जिन्दगी को जी रही अबला ।
किसको फुरसत यहाँ मुद्दों की लडाई होगी ।।


मौत का सौदा कुर्सियों से कर  गये नेता ।
कैसे कह दूं कि उसके साथ भलाई होगी ।।


बयान जब सुना कातिल के रहनुमाओं का ।
वह तो बेबस खड़ी आंसू से नहाई होगी ।।


ये हैं शैतान द्रौपदी का चीर खींच गये ।
मुल्क में जंग बड़ी फिर से बुलाई होगी ।।

                 -      नवीन मणि त्रिपाठी

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

गजल

                         गजल


एक साजिश के तहत मुल्क बटाने निकले ।

फ़ौज के फख्र को मिट्टी में मिलाने निकले ।।

 

रूह  शरमाई  शहीदों  की  उनकी हरकत से ।

जिनकी खातिर हुए फना वो बेगाने निकले ।।

 

मजहबी  आग  लगा  दी  है  बड़ी  जुर्रत से ।

ये बदगुमान अमन को ही मिटाने निकले ।।

 

 अकल बख्से खुदा भी ऐसे  काली दासों की ।

घोसला जिस पे था वो शाख कटाने निकले ।।

 

फसल  उगाई  नफरतों  की  बेहतरीन यहाँ ।

अपनी  कुर्सी के  लिए  देश जलाने निकले ।।

 

जब  से  इंशानियत झुलसी है उनके दंगों से ।

घर से मुजरे  के  लिए  खूब  खजाने निकले ।।

 

इस ज़माने में शुकूं परस्त बनके  देख जरा ।

कत्ल  होते  हैं  जो  तहजीब बचाने निकले ।।