---*** गीत***---
गंगा सहज प्रवाह पावनी ,
अमृत को झरते देखा है ।
धवल और शीतल लहरों से,
पुरखों को तरते देखा है ।
मानव जीवन की कल्याणी ,
ममता की अद्भुद धारा हो ।
भागीरथ की घोर तपस्या ,
सर्व नेत्र की तुम तारा हो ।
मातृ स्नेह से सदा अलंकृत ,
प्रेम सुधा बहते देखा है ।
गंगा सहज प्रवाह पावनी ,
अमृत को झरते देखा है ।।
पापों की अंतर ज्वाला पर,
नीर नित्य बरसाने वाली।
मोक्ष दायनी बन कर गंगा,
कलुषित कृत्य मिटाने वाली।।
भारत की माटी में तुझसे,
स्वर्ण सदा उगते देखा है ।
गंगा सहज प्रवाह पावनी,
अमृत को झरते देखा है।।
श्रद्धा की परिपाटी खंडित
अब करते संतान तुम्हारे ।
तेरे आँचल को विषाक्त कर,
गर्वान्वित है साँझ सकारे।।
मिथ्या उन्नति अभिलाषा में
मान तेरा बिकते देखा है ।
गंगा सहज प्रवाह पावनी
अमृत को झरते देखा है ।।
संस्कार के परिधानों को
पहन यहाँ दुष्कर्म हुआ है ।
निर्मल गंगा के मुद्दों संग,
सिंहासन का मर्म छुपा है ।।
महा स्वार्थ की राजनीति के ,
दल दल में फंसते देखा है ।
गंगा सहज प्रवाह पावनी,
अमृत को झरते देखा है ।।
-नवीन मणि त्रिपाठी
गंगा सहज प्रवाह पावनी ,
अमृत को झरते देखा है ।
धवल और शीतल लहरों से,
पुरखों को तरते देखा है ।
मानव जीवन की कल्याणी ,
ममता की अद्भुद धारा हो ।
भागीरथ की घोर तपस्या ,
सर्व नेत्र की तुम तारा हो ।
मातृ स्नेह से सदा अलंकृत ,
प्रेम सुधा बहते देखा है ।
गंगा सहज प्रवाह पावनी ,
अमृत को झरते देखा है ।।
पापों की अंतर ज्वाला पर,
नीर नित्य बरसाने वाली।
मोक्ष दायनी बन कर गंगा,
कलुषित कृत्य मिटाने वाली।।
भारत की माटी में तुझसे,
स्वर्ण सदा उगते देखा है ।
गंगा सहज प्रवाह पावनी,
अमृत को झरते देखा है।।
श्रद्धा की परिपाटी खंडित
अब करते संतान तुम्हारे ।
तेरे आँचल को विषाक्त कर,
गर्वान्वित है साँझ सकारे।।
मिथ्या उन्नति अभिलाषा में
मान तेरा बिकते देखा है ।
गंगा सहज प्रवाह पावनी
अमृत को झरते देखा है ।।
संस्कार के परिधानों को
पहन यहाँ दुष्कर्म हुआ है ।
निर्मल गंगा के मुद्दों संग,
सिंहासन का मर्म छुपा है ।।
महा स्वार्थ की राजनीति के ,
दल दल में फंसते देखा है ।
गंगा सहज प्रवाह पावनी,
अमृत को झरते देखा है ।।
-नवीन मणि त्रिपाठी