2122 2122 212
जुल्म बेबस पर यहाँ ढाते हैं सब ।
आँसुओं में ख़ाब बह जाते हैं सब ।।
क्या ज़माने लद गए कानून के ।
अब सियासत दां से घबराते हैं सब ।।
अब नहीं रहना है तेरे शह्र में ।
घर मेरा अक्सर जला जाते हैं सब ।।
मत करो इंसाफ की उम्मीद तुम ।
रिश्वतें मिल बॉट कर खाते हैं सब ।।
क्या करेगी ये अदालत फैसला ।
जब गवाही से मुकर जाते हैं सब ।।
है अजब आलम हमारे मुल्क का ।
गैर की दौलत उठा लाते हैं सब ।।
जब नहीं है वस्ता सच से कोई ।
क्यों कसम गीता लिए खाते हैं सब ।।
जात मजहब में बटे हैं लोग फिर ।
एकता के गीत क्यूँ गाते हैं सब ।।
लुट न जाए देश साज़िश के तहत ।
नफ़रतें हर सिम्त फैलाते हैं सब ।।
उनको रहने दे अभी पर्दानशीं ।
हुस्न वाले यार शर्माते हैं सब।।
देख तू हालात अब इस दौर के ।।
जिस्म ख़ातिर इश्क़ फरमाते हैं सब ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
जुल्म बेबस पर यहाँ ढाते हैं सब ।
आँसुओं में ख़ाब बह जाते हैं सब ।।
क्या ज़माने लद गए कानून के ।
अब सियासत दां से घबराते हैं सब ।।
अब नहीं रहना है तेरे शह्र में ।
घर मेरा अक्सर जला जाते हैं सब ।।
मत करो इंसाफ की उम्मीद तुम ।
रिश्वतें मिल बॉट कर खाते हैं सब ।।
क्या करेगी ये अदालत फैसला ।
जब गवाही से मुकर जाते हैं सब ।।
है अजब आलम हमारे मुल्क का ।
गैर की दौलत उठा लाते हैं सब ।।
जब नहीं है वस्ता सच से कोई ।
क्यों कसम गीता लिए खाते हैं सब ।।
जात मजहब में बटे हैं लोग फिर ।
एकता के गीत क्यूँ गाते हैं सब ।।
लुट न जाए देश साज़िश के तहत ।
नफ़रतें हर सिम्त फैलाते हैं सब ।।
उनको रहने दे अभी पर्दानशीं ।
हुस्न वाले यार शर्माते हैं सब।।
देख तू हालात अब इस दौर के ।।
जिस्म ख़ातिर इश्क़ फरमाते हैं सब ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
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