ग़ज़ल
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उनका गुनाह तो किसी क़ातिल से कम नहीं ।
जिनको हमारी जान के जाने का ग़म नहीं ।।
हर सिम्त उठ रही हैं ये लाशें घरों से क्यूँ ।
शायद मेरे दयार में बैतुल हरम नहीं ।।
कह दूं मैं मीडिया की तरह तुमको अब ख़ुदा ।
इतना तुम्हारे काम पे मुझको भरम नहीं ।।
रक्खा था जिनको दिल मे ज़माना सँभाल के ।
वो तो जनाब ठहरे यहाँ मोहतरम नहीं ।।
उजड़े तमाम घर यहाँ इतनी सी बात पर ।
बस्ती में जब मिला उसे बैतुस सनम नहीं ।।
करते रहें वो याद ज़माने तलक हुजूऱ।
मुफ़लिस के हक़ में आपके ऐसे करम नहीं ।।
इस दौर में है जीने का अन्दाज़ यूँ अलग ।
बचती ये जिंदगी है मियाँ बे रकम नहीं।।
पकड़ा गया वही है फरेबों के दरमियाँ ।
कहता था जो मैं खाता हूं झूठी कसम नहीं ।।
बैतुल हरम= पवित्र स्थान
बैतुस सनम= प्रेमिका का घर
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--डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

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