ग़ज़ल
2122 1122 1122 22
बे सबब रूठ के जाने की ज़रूरत क्या थी ।
आसमाँ सर पे उठाने की ज़रूरत क्या थी ।।
मुझको तन्हा ही तुम्हें छोड़ के जाना था तो ।
दूर तक साथ निभाने की ज़रूरत क्या थी ।।
होश में था ही नहीं मैकदे में जो साकी ।
फिर उसे और पिलाने की ज़रूरत क्या थी ।।
मैं तेरी रूह को पढ़ता रहा ता उम्र सनम ।
दर्दो ग़म मुझसे छुपाने की ज़रूरत क्या थी ।।
जीस्त के वास्ते अच्छा था मुहब्बत का भरम ।
आइना हमको दिखाने की ज़रूरत क्या थी ।।
जब तेरे बस में नहीं था तू भुला दे मुझको ।
ख़त मेरा पढ़ के जलाने की ज़रूरत क्या थी ।।
दिल में नफरत की यूँ दीवार बनाकर हमसे ।
इस तरह हाथ मिलाने की ज़रूरत क्या थी ।।
आज़ महफ़िल में सरेआम उठाकर यूँ नक़ाब ।
आग पानी में लगाने की ज़रुरत क्या थी ।।
इक मुलाक़ात ही काफ़ी थी तबाही के लिए ।
ख़्वाहिशें और जगाने की ज़रुरत क्या थी ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
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