2122 1122 1122 22
हाले दिल सुनने सुनाने में उलझ जाता हूँ ।
मैं तेरे ग़म के फ़साने में उलझ जाता हूँ ।।
जाने कैसी है क़शिश उसकी सदा में यारो ।
बारहा उसके तराने में उलझ जाता हूँ ।।
हो शबे वस्ल कहीं मुद्दतों से है ख़्वाहिश ।
बात उनसे ये बताने में उलझ जाता हूँ ।।
कौन अपना है यहाँ कौन पराया साहब।
जुबां पे बात ये लाने में उलझ जाता हूँ ।।
वो शरर बन के गुज़रता है मेरे कूचे से ।
और मैं आग बुझाने में उलझ जाता हूँ ।।
बयां कर देती है चेहरे की शिकन जब सच को ।
मैं हक़ीक़त को छुपाने में उलझ जाता हूँ ।।
यार की शक्ल में मिलते हैं फ़रेबी मुझको ।
आजकल हाथ मिलाने में उलझ जाता हूँ ।।
जाने कैसी तेरी जुल्फों की है फ़ितरत जानां ।
मैं तेरा अक्स बनाने में उलझ जाता हूँ ।।
तोड़ जाती है कमर रोज़ यहां महँगाई ।
मैं तो परिवार चलाने में उलझ जाता हूँ ।।
डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें