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जिनसे उम्मीदें थीं सबको होंगे नफ़रत के ख़िलाफ़ ।
वो मिले अक्सर चमन में क्यूँ मुहब्बत के ख़िलाफ़ ।।
ख़ामुशी जमहूरियत की ये बताती है हमें ।
आग शायद लग चुकी है अब जहालत के ख़िलाफ़ ।।
जब लगे दीवार पर शिकवे- गिले के पोस्टर ।
फिर नज़र आये हैं साहब आप जनमत के ख़िलाफ़ ।।
सच बयानी कीजिये मत जाहिलों के सामने ।
बात जो सुनते नहीं हैं शानो शौक़त के ख़िलाफ़ ।।
काम के अंजाम का कुछ तो तसव्वुर कीजिये ।
क्यूँ कलम चलने लगी दुनिया मे इज्ज़त के खिलाफ ।।
कुर्सियों पर जब मदारी हो गए काबिज़ यहाँ ।
बोलता ही कौन है अब यार रिश्वत के ख़िलाफ़ ।।
तैरती लाशों के मंजर पर न पर्दा डालिये ।
हो न जाए आदमी इक दिन सियासत के खिलाफ ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
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