ग़ज़ल
जला है राष्ट्र, पर चर्चा नहीं है ।
अनल के बिन धुआँ उठता नहीं है ।।1
हैं जिसके कर्म उत्तम इस जगत में ।
उसे अपयश कभी डसता नहीं है ।।2
समाहित हो रहीं सम्पूर्ण नदियां ।
जलधि का किंतु तल बढ़ता नहीं है ।।3
महामारी से मानव लड़ रहा अब ।
चरम तक युद्ध यह पहुंचा नहीं है ।।4
विदेशी वस्तु को देकर बढ़ावा ।
मिला परिणाम कुछ अच्छा नहीं है ।।5
सकल उत्पाद पर बस मौन रहना।
हमारे देश की शोभा नहीं है ।।6
लगे हैं निर्धनों पर कर हजारों।
तुम्हारे लोभ की सीमा नहीं है ।।7
तुम्हें पढ़ने लगा है गौर से वह ।
जो पैदल चल रहा सोता नहीं है ।।8
यहाँ तृष्णा से धरती सूख जाए ।
कहीं घन वृष्टि अब करता नहीं है ।।9
कभी इस पार आकर देख तो लें ।
हृदय का सेतु जब टूटा नहीं है ।।10
चतुर्भुज से बनाते हम कवच पर ।
करें क्या अब सरल रेखा नहीं है ।।11
-- नवीन
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