ग़ज़ल
1212 1122 1212 112
कहा है घर मे रहो जिसने बार बार ज़नाब ।
ज़रा सा कीजिये उस पे भी ऐतबार ज़नाब ।।1
बचा के रक्खें इसे जीस्त क़ीमती है ये ।
मिली कहाँ है कभी जिंदगी उधार ज़नाब ।।2
सुना है शह्र में क़ातिल बना है कोरोना ।
बढ़ाएं मत अभी मक़तूलों की क़तार जनाब ।।3
हुई है ऐसी हिफ़ाज़त जम्हूरियत से सुनो ।
नगर से मौत लिए लोग हैं फ़रार ज़नाब ।।4
बिछीं न होतीं ये लाशें वबा की मर्जी से ।।
किसी का मौत पे होता जो अख़्तियार ज़नाब ।।5
कजाएँ बाँट रहे हैं तमाम लोग यहाँ ।
अगर है जान बचानी तो होशियार जनाब ।।6
तसल्ली रखिये हटेगी सनम की पाबंदी ।
अभी न होइए इतना भी बेकरार ज़नाब ।।7
वबा - महामारी
--डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें