122 122 122 122
बदलते हैं मंजर गुमां आते आते ।
चले आये साहब कहाँ आते आते ।।
न खुल जाएं कोरी सियासत की परतें ।
न हो जाएं किस्से बयां आते आते ।।
बता दीजिए आप अपनी हक़ीक़त ।
ये क्यूँ जल रहा हर मकां आते आते ।।
बनाया था जिसने शिगूफों से पुल को ।
परेशां है वो इम्तिहां आते आते ।।
हुआ मुल्क हैरां तुम्हें देखकर तब ।
इरादे हुए जब अयाँ आते आते ।।
वो था कोई सौदा या साज़िश थी साहब ।
अदू पर दिखे मिह्रबां आते आते ।।
उलझ से गये उनके अल्फ़ाज़ देखो ।
सवालात के दरमियां आते आते ।।
ये कैसा दयारे मुहब्बत है यारो ।
सुनाई पड़ीं सिसकियां आते आते ।।
-- नवीन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें